हमारे सिद्धान्त

 

बाइबिल आधारित बुनियाद 

  • बाइबिल का आदर उस मानक के रूप में करें जिससे हम समस्त विश्वास, निर्देश, नीतियाँ, और व्यवहार का मूल्यांकन करते हैं(2 तीमु. 3:16)।
  • हमारे विश्वास की अभिव्यक्ति के प्रति ईमानदार रहना(2 तीमु. 1:13)।
  • सैद्धान्तिक महत्व के प्रति पूर्ण विकसित दृष्टिकोण प्रतिबिम्बित करना(प्रेरितों 20:27)।

 

दास की तरह नेतुत्व 

  • प्रत्यक्ष योग्यता और चरित्र वाले दास स्वरूप अगुवों का चुनाव करना (निर्ग. 18:21; 1 तीमु. 3:1-13)
  • सैद्धान्तिक महत्व के प्रति पूर्ण-विकसित दृष्टिकोण प्रकट करना(प्रेरितों 20:27)।

 

आध्यात्मिक समर्पण 

  • प्रभु यीशु मसीह की निकट संगति में रहना। उस यह कहने का कारण ने दें, “मुझे तेरे विरुद्ध यह कहना है कि तू ने अपना पहला सा प्रेम छोड़ दिया है“(प्रका. 2:4)।
  • स्वयं पर निर्भर होने की बजाए आवर डेली बेड मिनिस्ट्रीज़ का कार्य प्रभु की बुद्धि और सामर्थ्य में करना(गला.2:20; 3:3)।
  • कार्य के दौरान अथवा बाद में आचरण का दृढ़ नमूना प्रगट करना जो हमें प्रभु के लोग दर्शाता है(1 पतरस 1:14-15)।  
  • सर्वदा परमेश्वर पर भरोसा रखकर सही कार्य करना(1 पतरस 3:16)।

 

हम जिनकी सेवा करते हैं उनकी चिन्ता करना 

  • जिस तरह हम अपने लिए पसन्द करते हैं उसी प्रकार का व्यक्तिगत्, तत्पर, और व्यवहारिक ध्यान देना (2 कूरिं. 4:5, 15)।
  • प्रेम में सच बोलना। व्यर्थ अपमानजनक न होना (2 तीमु. 2:24)।
  • हमारे प्रयासों को सराहनेवालों  के साथ मुक्त और ईमानदार सम्बन्ध विकसित करना (2 कुरिं. 4:2)।
  • दूसरे सभी सम्बन्धों एवं प्रभाव क्षेत्रों के प्रति संवेदनशील रहना जिसमें वेन्डर्स, आगन्तुक, पड़ोसी, समाज, और शासन सम्मिलित हैं किन्तु इन लोगों तक ही सीमित नहीं है (रोमियों 13:7-8)।

 

सहयोगियों के लिए चिन्ता

  • अपने साथ काम करनेवालों का अलग-अलग मूल्यों को और व्यक्तिगत् रूचियों को पहचानना (फिलि. 2:1-4)।

 

सेवा की गुणवत्ता 

  • कार्यकुशलता के गुण और प्रदर्शन का प्रयास करना जो हमारे सन्देश की गरिमा बढ़ाएगी, उसे सशक्त करेगी, और उसे ऊँचा करेगी (1 कुरिं. 10:31)
  • हमें सुपुर्द समस्त श्रोत के लिए विश्वासयोग्य भण्डारी बनना (1 कुरिं. 4:2)।

 

सेवा का चरित्र 

  • फंड/कोष की उपलब्धता पर प्रचार सेवा बढ़ाना अथवा घटाना
  • कर्ज से बचना (रोमियों 13:8)।
  • निर्णय हेतु हमारे संस्था-सम्बन्धी उत्तरजीविता को प्रबल उद्देश्य नहीं बनाना(फिलि. 1:19-26)।
  • आत्म-प्रशंसा से बचना (नीति. 27:2)

 

दूसरी सेवाओं के साथ सम्बन्ध 

  • परमेश्वर जो दूसरे व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा कर रहा है उनको स्वीकार करना और उनका सम्मान करना (1 कुरिं. 1:10-13)
  • किसी भी प्रकार के सम्बन्धन न रखना जो हमारे उद्देश्यों से समझौता करता है और हमारे प्रभावशीलता को कमजोर करता है (2 कुरि.:14)
  • अपनी सेवाओं का इस तरह निर्वाह करना जो स्थानीय कलीसिया की सहायता करे और उसका
    सम्पूरक हो (इफि. 4
    :1-7)।