13 वर्ष के होने पर हमारे स्कूल के नियमों के अनुसार छात्रों को चार शोधपूर्ण कोर्स लेने अनिवार्य थे जिसमें गृह-अर्थशास्त्र, कला, गायक-वृंद तथा बढ़ईगिरी शामिल थे। गायन की पहली कक्षा में प्रशिक्षक ने छात्रों की आवाज सुनने के लिए एक-एक करके पियानो के पास बुलाया और उनकी स्वर क्षमता के अनुसार कमरे में पंक्तिबद्द किया। अपनी बारी पर मैंने पियानो के साथ गाने की कोशिश की, कई प्रयासों के बाद मुझे किसी पंक्ति की बजाए कोई दूसरी कक्षा लेने के लिए काउंसलिंग ऑफिस भेज दिया गया। मुझे लगा कि मुझे नहीं गाना चाहिए।

मैंने 10 वर्ष तक यह बात मन में रखी जबतक कि मैंने भजन-संहिता 98 ना पढ़ा। लेखक “प्रभु के लिए गाने” (भजन 98:1) के निमंत्रण से इसे आरम्भ करता है। इसका हमारे गाने की क्षमता से कोई सारोकार नहीं। वह अपने सभी बच्चों के धन्यवाद और स्तुति के गीतों से प्रसन्न होते हैं। वह हमें इसलिए गाने को कहता है क्योंकि परमेश्वर ने “अद्भुतकाम किए हैं “(पद 1)। 

भजनकार ने अपने गीतों और व्यवहार में आनन्दित होकर परमेश्वर की स्तुति करने के दो कारण दिए: हमारे जीवन में उनके उद्धार का कार्य और उनकी निरंतर रहने वाली विश्वासयोग्यता। परमेश्वर की गायन मंडली में हम में से प्रत्येक के पास उनके अद्भुत कामों के लिए गीत होते हैं।