अनुभव से यह जाना गया है कि चर्च के झुकी हुयी मीनार लोगों को घबरा देती हैं l जब हम कुछ मित्रों से मिलें, उन्होंने हमारे साथ साझा किया कैसे, एक भयंकर आंधी के बाद, उनकी चर्च ईमारत की शानदार मीनार विरूपित हो गयी, और भय उत्पन्न कर दी l

अवश्य ही, चर्च ने शीघ्र ही उस गिरती हुए कमजोर मीनार की मरम्मत करवा दी, किन्तु उस हास्यकर प्रतीक ने मुझे सोचने को विवश किया l अक्सर चर्च को एक स्थान के रूप में देखा जाता है जहाँ सबकुछ दोषहीन होने की अपेक्षा जाती है; यह ऐसे स्थान के रूप में नहीं देखा जाता है जहां हम विकृत, आकारहीन उपस्थिति दें l मैंने ठीक बोला?

किन्तु हम सब एक पतित, टूटे संसार में, अपने ही प्रत्येक स्वाभाविक निर्बलताओं के संग्रहण के साथ “विकृत/विरुपुत” है l हमारे पास अपने दुर्बलताओं को आवरण में छिपाने की परीक्षा आ सकती है, परन्तु वचन इसके विपरीत बात को प्रोत्साहित करता है l उदहारण के लिए, 2 कुरिन्थियों 12, में, पौलुस सलाह देता हैं कि यह हमारी दुर्बलताओं में है – उसके लिए, एक अनाम संघर्ष जिसे वह “शरीर में एक काँटा” कहता है (पद.7) – कि मसीह संभवतः अपनी सामर्थ्य प्रगट कर सके l यीशु ने पौलुस से कहा था, “मेरी सामर्थ्य निर्बलता में सिद्ध होती है” (पद.9) l इसलिए पौलुस इस परिणाम पर पहुँचा, “इस कारण मैं मसीह के लिए निर्बलताओं में, और निंदाओं में, और दरिद्रता में, और उप्द्रवों में, और संकटों में प्रसन्न हूँ, क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूँ, तभी बलवंत होता हूँ” (पद.10) l

हम अपनी अपूर्णताओं को पसंद नहीं करेंगे, परन्तु उनको स्वयं के उन पहलुओं के भीतर छिपाना यीशु के कार्य करने की सामर्थ्य का केवल इनकार है l जब हम यीशु को हमारे भीतर उन विकृत स्थानों में आमंत्रित करते हैं, वह कोमलता से उनको ऐसे तरीकों से ठीक और मुक्त करता हैं जो हमारे प्रयास नहीं कर सकते हैं l