शर्ली एक लम्बे दिन के पश्चात् अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गयी l उसने खिड़की के बाहर उससे भी वृद्ध पति-पत्नी को एक बाड़े को खींचते हुए देखा जो एक अहाते में पड़ा था और जिसपर लिखा था “मुफ्त है l” शर्ली अपने पति के साथ उनकी मदद करने दौड़ गयी l चारों ने मिलकर मेहनत की और बाड़े के एक हिस्से को एक ठेले में लादकर शहर के सड़क से होते हुए उस दम्पति के घर के निकट ले आये – पूरे समय हँसते हुए कि वे तमाशा बन गए थे l जब वे बाड़े के दूसरे हिस्से को लेने गए, उस महिला ने शर्ली से पुछा, “तुम्हें मेरी सहेली बनना चाहिए?” “हाँ, अवश्य,” उसने उत्तर दिया l शर्ली को बाद में पता चला कि उसकी नयी वियतनामी सहेली थोड़ी अंग्रेजी जानती थी और अकेली थी क्योंकि उसके व्यस्क बच्चे उनसे बहुत दूर रहने चले गए थे l

लैव्यव्यवस्था की पुस्तक में, परमेश्वर ने इस्राएलियों को याद दिलाया कि वे परदेशी होने का अनुभव जानते थे (19:34) और दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए (पद.9-18) l परमेश्वर ने उनको अपना राष्ट्र बनाने के लिए अलग किया था, और इसके बदले में उन्हें अपने “पड़ोसियों” से अपने समान प्रेम करके उन्हें आशीष देना था l परमेश्वर की ओर से सभी राष्ट्रों के लिए महानतम आशीष, यीशु ने, बाद में अपने पिता के शब्दों को दोहराया और उनको हम तक पहुँचाया : “तू परमेश्वर अपने प्रभु से . . . और . . . अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख” (मत्ती 22:37-39) l

हमारे अन्दर मसीह की आत्मा के निवास करने के द्वारा, हम परमेश्वर से और दूसरों से प्रेम कर सकते हैं क्योंकि उसने पहले हमसे प्रेम किया है (गलातियों 5:22-23; 1 युहन्ना 4:19) l क्या हम शर्ली के साथ कह सकते हैं, “हाँ, अवश्य”?