मैं अपने पड़ोसी मिरियम और उसकी छोटी लड़की एलिज़बेथ की ओर हाथ हिलाते हुए अपनी कार को अपने घर के आगे सड़क पर बढ़ाया l इन वर्षों में, एलिज़बेथ वादा किये गए “कुछ मिनटों” की तुलना में लम्बे समय तक चलने वाली हमारी सहज चैट की आदि हो गयी थी और प्रार्थना सभाओं में भाग लेने लगी थी l वह अपने सामने के अहाते के बीच में लगे हुए पेड़ पर चढ़ गयी, एक डाली से अपने पैरों को हिलाने लगी, और व्यस्त हो गयी जब उसकी माँ और मैं बातचीत करते रहे l कुछ समय के बाद, एलिज़बेथ अपनी डाली से नीचे कूदकर  वहाँ आ गयी जहाँ हम दोनों खड़े थे l वह हमारे हाथों को पकड़कर, मुस्कुराई और लगभग गाने लगी, फिर . . . प्रार्थना करने का समय है l” छोटी उम्र में भी, एलिज़बेथ समझने लगी थी कि हमारी मित्रता में प्रार्थना कितना प्रमुख था l 

विश्वासियों को “प्रभु में और उसकी शक्ति के प्रभाव में बलवंत” बनने के लिए उत्साहित करने के बाद (इफिसियों 6:10), प्रेरित पौलुस ने निरंतर प्रार्थना की महत्वपूर्ण भूमिका पर विशेष अंतर्दृष्टि प्रदान की l उसने उस आवश्यक हथियारबंदी का वर्णन किया जिसकी ज़रूरत परमेश्वर के लोगों को प्रभु के साथ उनके आत्मिक राह में चाहिए, जो अपनी सच्चाई में सुरक्षा, विवेक और भरोसा देता है (पद.11-17) l हालाँकि, प्रेरित ने जोर देकर कहा कि परमेश्वर प्रदत्त यह सामर्थ्य प्रार्थना के जीवन-दायक उपहार में संकल्पित तन्मयता से बढ़ता है (पद.18-20) l 

परमेश्वर हमारी चिंताओं के विषय सुनता है और फ़िक्र करता है, चाहे उनके विषय दृढ़ता से बोली जाए, सिसकते हुए कहा जाए, या एक दुखते हुए हृदय में छिपा कर रखा जाए l वह सदा हमें अपनी सामर्थ्य में शक्तिशाली बनाने के तैयार रहता है, जब वह वह हमें बार-बार प्रार्थना करने को आमंत्रित करता है l