किसी से सुनी हुई एक कहानी है कि लंदन टाइम्स ने बीसवीं सदी के मोड़ पर पाठकों से एक सवाल किया । संसार में क्या गड़बड़ी है?

यह काफी अहम् सवाल है, क्या यह नहीं है? कोई जल्दी से जवाब दे सकता है, “ठीक है, मेरे पास आपको बताने के लिए कितना समय है?” और यह उचित होगा, क्योंकि ऐसा लगता है कि हमारी दुनिया के साथ बहुत कुछ गलत है । जैसे ही कहानी आगे बढ़ती है, द टाइम्स को कई प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं, लेकिन विशेष रूप से एक ही अपनी संक्षिप्त प्रतिभा में धीरज धरा है । अंग्रेजी लेखक, कवि और दार्शनिक जी. के. चेस्टरटन ने इन चार शब्दों की प्रतिक्रिया के साथ, दूसरे पर आरोप मढ़ने के विपरीत एक तरोताजा आश्चर्य प्रगट किया : “प्रिय महोदय, मैं हूँ l”

कहानी तथ्यात्मक है या नहीं, बहस के लिए तैयार है । लेकिन वह प्रतिक्रिया? यह सच है इसके आलावा कुछ नहीं l चेस्टरटन के आने से बहुत पहले, पौलुस नाम का एक प्रेरित था । एक आजीवन मॉडल नागरिक से दूर, पौलुस ने अपनी पिछली कमियों को कबूल किया : “मैं तो पहले निंदा करनेवाला, और सतानेवाला, और अंधेर करनेवाला था” (पद.13) । यह बताने के बाद कि यीशु किसको (“पापी”) बचाने आया, वह आगे बढ़कर एक घोषणा करता है : “जिनमें सबसे बड़ा मैं हूँ”(v.15) । पौलुस को ठीक-ठीक पता था कि संसार में क्या गड़बड़ी है । और वह आगे भी चीजों को सही बनाने की एकमात्र आशा जानता था – “हमारे प्रभु का अनुग्रह” (पद.14) । क्या अद्भुत वास्तविकता है! यह स्थायी सत्य हमारी आँखों को मसीह के प्रेम के प्रकाश की ओर ले जाता है ।