फिल्म द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो, का एक प्रसिद्ध चित्रण उस जवान लड़के के 16वें जन्मदिन के लिए बिल्कुल अनुकूल था, “मेरे जवान मित्र, जीवन एक तूफान है। एक क्षण तुम सूर्य के प्रकाश का आनन्द उठाने लगते हो, और दूसरे ही क्षण चट्टानों पर बिखर जाते हो। तूफान आने पर तुम जो निर्णय करते हो वही तुम्हें एक आदमी बनाता है। तुम्हें तूफान को देखना है, और उसी प्रकार करना है जिस प्रकार तुमने रोम में चिल्लाया था, “तुम अपना बेहतरीन दो और ….और मैं अपना!

         यदि यह इतना ही सरल होता जैसे कि पूर्वनिश्चित्त की गई प्रतिबद्धता, एक साधारण सा कथन जो उस अवसर पर कहा गया होता, “कि हम तूफानों का सामना करेंगे।” यह एक साधारण कथन नहीं है, पर हम अपने आप को उन आनेवाले तूफानों के लिए तैयार कर सकते हैं। अपने जीवन को एक दृढ़ नींव पर बनाना, आंधियाँ और वर्षा अनिवार्य रूप से आएंगी, पर हमारे जीवन को हिला नहीं पाएँगी। शायद हमें यह नहीं चिल्लाना चाहिए कि हम उत्तम करेंगे, पर फिर भी हम भयानक तूफानों में भी खड़े रह सकेंगे।

शेरीडेन वोयसी

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ल्पना करें कि आप एक दिन अपने बगीचे की घास को साफ कर रहे हैं, तभी दो पुलिस कर्मी आपके पास आते हैं। आपके नाम की पुष्टि होने के बाद, जब तक कि वे आपके घर की ली जा रही थी, आपको हथकड़ी पहना कर पुलिस कार तक ले जाते हैं। जब अधिकारियों ने कहा कि वे आपको लूट पाट के लिए गिरिफ़्तार कर रहे हैं, “तुम्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी होगीI” “हमें इसकी परवाह नहीं है कि तुमने अपराध किया है या नहीं,” “तुम्हें सज़ा मिलेगी।”

         यह और भी बुरी परिस्तिथि बन जाती है जब डकैती को सोच समझ कर किया गया या गुनाह या हत्या बना दिया जाता है। पर हादसे के समय तुम अपने काम पर गए हुए थे, जो कि 15 मील की दूरी पर था। “यदि तुमने यह नहीं किया है,” एक लेफ्टिनेंट ने धीरे से चुटकी ली, “तो तुम्हारे किसी भाई ने किया होगा, क्योंकि तुम लोग सदा एक दूसरे की सहायता करते रहते हो।” अब यह बात स्पष्ट हो जाती है, या यह मान लिया जाता है क्योंकि तुम अश्वेत हो।

         तुम जेल जाओ और न्यायालय में अपने न्याय की प्रतीक्षा करो। दो वर्ष बाद, अंत में तुम्हारा मुक़द्दमा सुना जाता है, और न्यायाधीश (जूरी) उस दिन तुम्हें दोषी पाता है, और तुम्हें मौत की सज़ा सुनाता है, और तुम्हें मौत की सज़ा के लिए भेज दिया जाता है, जहां पर तुम 28 वर्षों तक रहते हो।

         यह भयानक कहानी सच्ची है I दिसंबर 1985 में, एंथनी रे हिनटन को बर्मिंघम, एलाबामा (Birmingham,Alabama) में दो रेस्टोरेन्ट मेनेजर की हत्या के लिए दोषी करार दिया जाता है — ऐसा जुर्म जो उसने किया ही नहीं था, ऐसी सज़ा जो उसके लिए उचित नहीं थी। उसके 30 उत्तम वर्ष उससे छीन लिए गए, जब तक कि संयुक्त राष्ट्र के न्यायालय ने उसके फैसले को गुड फ्राइडे, 2015 के दिन पलट दिया।

अन्याय से प्रभावित होना

जब मैंने रे हिंटन की कहानी सुनी, मुझे कई चीजों ने प्रभावित किया। सबसे पहला सर्वप्रथम उसके साथ बहुत ही अन्याय हुआ था। उसके दोष को साबित उसकी माँ के घर से बरामद हुई बंदूक के आधार पर किया गया था। जिसे उन्होने हत्या का हथियार माना। जबकि वह बंदूक पिछले 20 वर्षों से चली ही नहीं थी, और उसका कोई परीक्षण भी नहीं किया गया था। रे का पहला वकील पक्षपातपूर्ण और अयोग्य था, जिससे उसकी सुनवाई में लगभग 10 वर्ष की देरी हुई। जब रे ने झूठ पकड़ने वाले परिक्षण (lie detector) को पास किया, तो उस परिणाम को न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।

         रे को बहुत कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। उसकी जेल की कोठरी इतनी छोटी थी कि वह कठिनाई से उसमें सो पाता था। कोठरी में रहने वाले रात को भयानक सपनों के कारण चिल्लाते थे, कुछ ने आत्महत्या भी कर ली थी। क्योंकि रे की कोठरी फ़ांसी कक्ष के पास थी, जब एक कैदी को फांसी दी गई, तब रे ने उसके प्रभाव को महसूस किया।

         पर मुझे रे की कहानी ने एक चीज़ से प्रभावित किया। एक रेडियो इंटरव्यू के दौरान इंटरव्यू लेने वाले ने इस बात को देखा कि रे उन लोगों के प्रति कड़वाहट से भरा हुआ नहीं था जिन्होने उसका बुरा किया था। रे ने कहा, “मैं उनसे नफरत नहीं कर सकता हूँ, “क्योंकि मेरी बाइबल मुझे सिखाती है नफरत मत करो।” जिन परिस्थितियों से वह गुज़र रहा था, यह बहुत प्रभावी कथन था।

न्यायालय की गरिमा

न्यायालय में अपने फ़ैसले के दिन में रे ने जो व्यक्ति उसके मुक़दमे से जुड़े हुए थे नको संबोधित करते हुए कहा कि “मेरे साथ वही करो जो तुम को ठीक लगता है, उसने जज से कहा, “पर जब तुम मुझे इतने विश्वास के साथ फांसी पर चढ़ाते हो, तुम अपने हाथों को खून से रंगते हो।” रे ने तब जज को बोला कि वह उसके लिए प्रार्थना कर रहा था।

         रे ने अभियोक्ता (प्रोसीक्यूटर) जो कि उसके प्रति बहुत ही क्रूर था, से कहा, “मैं केवल एक अश्वेत हूँ, जिससे तुम्हें कोई मतलब नहीं है।” तब उसने आगे कहा, “मैं तुम से नफरत नहीं करता हूँ — मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। तुम सोच सकते हो कि शायद मैं सनकी हूँ क्योंकि मैं ऐसे व्यक्ति को प्रेम करने की बात कह रहा हूँ, जिसने मुझे दोषी ठहराकर फांसी की सज़ा सुनाई, पर मैं तुम से प्रेम करता हूँ।”

         रे उन जिला प्रतिनिधियों, जमानतदार और पुलिस के जासूसों की ओर घूम कर कहा जिन्होंने झूठी शपथ खाई थी। “मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि परमेश्वर तुम्हारे किए के लिए तुम्हें क्षमा कर दे।” रे ने कहा, “तुम भी मृत्यु को प्राप्त करोगे जैसे कि मैं कर रहा हूँ — पर एक बात — अपनी मृत्यु के बाद मैं स्वर्ग में जाऊंगा। तुम कहाँ जा रहे हो?”

         रे को यह ज्ञात नहीं था कि यह कठिन परीक्षा उसको कितना परखेगी, या उनको क्षमा करने की उसकी इच्छा कितनी कठिन होगी। वह 28 वर्षों तक प्रतिदिन इनके लिए प्रार्थना करता रहा। — और परिणाम?

उसने उस जीवित नरक में जीना जारी रखा बिना किसी रोष या कड़वाहट के I
रे को यह शक्ति कहाँ से मिली?

गुप्त शक्ति

“कोई ऊपर है जो जानता है कि मैंने यह नहीं किया,” रे ने उस दिन न्यायालय में यह कहा, “और एक दिन — वह तुम्हें यह बता देगा कि मैंने यह नहीं किया है।” रे का परमेश्वर में विश्वास कि वह अंत में साबित कर देगा, इससे उसे आशा और शक्ति मिली। परन्तु कुछ और भी था।

रे के शब्दों को ध्यान से सुनें तो उसकी गूंज किसी दूसरे के शब्दों सी सुनाई देती है।:
“मैं तुमसे नफरत नहीं करता हूँ — मैं प्रेम करता हूँ।”
“मैं कहता हूँ, अपने शत्रुओं से प्रेम करो —”
“मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि परमेश्वर तुम्हें क्षमा करेगा —”
“और उनके लिए प्रार्थना करो जो तुम्हें सताते हैं।”

         जिस प्रकार से रे ने परमेश्वर के न्याय की प्रतीक्षा करी, उसने इस प्रकार से उन शब्दों का अनुकरण किया, जिसने कि गांधीजी को शांतिपूर्वक आंदोलन का मार्ग दिखाया और डित्रीच बोन्होफ़र को नाज़ीयों का विरोध करना I यीशु के पहाड़ी पर दिये गए उपदेश हमारे प्रतिदिन के जीवन की शब्दावली का भाग होना चाहिये, जैसे कि “अपना दूसरा गाल भी सामने कर दो”, और “एक मील अतिरिक्त चल लो ।”

         मत्ती सुसमाचार के तीन अध्याय (5-7) यीशु के पहाड़ी पर दिये गए उपदेश को आप 15 मिनिट में पढ़ सकते हैं। पर इस सुसमाचार के संक्षिप्त भाग में, यीशु मसीह ने प्रार्थना से मतभेद से लेकर, सम्बन्धों से संपत्ति तक सब कुछ बता दिया है। तब भी एक विषय इसमे अंतर्निर्हित/आधारभूत है:

लचीली प्रवृत्ति

          यीशु ने इस विषय को एक विशेष कहानी जो दो घर बनाने वालों की है, से बताया है। एक ने अपना घर बुद्धिमानी से बनाया, गहराई तक खोदकर चट्टान पर बनाया, जबकि दूसरे ने रेत पर बनाया। तूफान आया, और दूसरा घर गिर गया, यीशु मसीह ने इसको अपनी शिक्षा में इस प्रकार से बताया :

“इसलिए जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है वह उस बुद्धिमान मनुष्य की नाई ठहरेगा जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया। और मेंह बरसा और बाढ़ें आई, और आँधियाँ चलीं, और उस घर पर टक्करें लगीं, परंतु वह नहीं गिरा, क्योंकि उसकी नेव चट्टान पर डाली गई थी।” (मत्ती 7:24-25)

          कभी कभी पहाड़ी के उपदेश पढ़ने में असहज लगते हैं। किसी ने इस प्रकार स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि इसके आचार विचार बिलकुल असंभव हैं। यद्यपि ये चुनौतीपूर्ण हैं, रे हिंटन का जीवन बताता है कि इसको जिया जा सकता है भले ही अति उत्तमत्ता के साथ नहीं। जब हम इन प्रवचनों को अपने जीवन के प्रारूप को देने के लिए इसको प्राथमिकता मानते हैं, जो हमारे कदमों को दिशा देगी, यीशु मसीह कहते हैं, हम ऐसा जीवन बनाएंगे जो जीवन के तूफानों का सामना कर सके।

प्राचीन शक्ति

लचीली प्रवृत्ति आजकल कुछ वर्षों से एक बहुत बड़ा अध्ययन का विषय बन गया है। शोधकर्ता इस बात के शोध में लगे हुए हैं कि कठिन समय का लोग किस प्रकार सामना कर सकते हैं। मार्टिन सेलिगमेन जैसे मनोवैज्ञानिक निम्नलिखित तत्वों को सम्मलित करते हैं:

  1. सकारात्मक भावनाएं: लचीली प्रवृत्ति के लोग अपने जीवन में सकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा देते हैं, जैसे कि शांति और आशा, जबकि वे नकारात्मक भावों को जैसे कि दुख और क्रोध को आवश्यकतानुसार समायोजित कर लेते हैं।
  2. उपलब्धि: लचीली प्रवृत्ति के लोग अपने जीवन में कई चीजों को देख पाते हैं — चाहे वह काम हो, उनकी कोई रुचि हो, या कोई अन्य क्रिया — और वे यह अनुभव करते हैं कि वे इसे अच्छे से कर सकते हैं।
  3. संबंध या रिश्ते: लचीली प्रवृत्ति के लोग अच्छी दोस्ती कर पाते हैं, परिवार में एक जुटता ला पाते हैं, और समाज में अच्छे से संपर्क कर पाते हैं।
  4. अर्थपूर्ण होना: लचीली प्रवृत्ति के लोगों को संबद्धता और दूसरों के लिए अपने से अधिक अच्छा करने के उद्देश्य की अनुभूति होती है।

          एक स्वस्थ हृदय, महत्त्वपूर्ण उपलब्धि, अच्छे संबंध, एक अर्थपूर्ण होने की अनुभूति। यीशु के पर्वत के उपदेश हमें उपरोक्त कारकों को अपने जीवन में विकसित करने का मार्ग बताते हैं। यह मानवीय प्रयासों के अनुसार नहीं पर पवित्रता के द्वारा होता है। और जब हम यह देखते हैं, कमजोर और जो अयोग्य/कमतर हैं वे सबसे अधिक परमेश्वर की शक्ति प्राप्त करने की स्थिति में होते हैं।

          शायद आप तलाक के दौर से, बेरोजगारी, दुखद घटना, या अन्याय से गुजरे हों। या शायद अभी स्थिति ठीक हो, और आपका भविष्य बहुत चमकदार लगता हो। यीशु मसीह ने कभी यह नहीं कहा कि हम जीवन के तूफानों से बच जाएंगे। एक बिन्दु पर हमारी परीक्षा होगी । कैसी भी स्थिति हो, अभी वह समय है जबकि आप अपने जीवन की नींव को शक्तिशाली बना सकते हो।

          आइए हम इस पहाड़ी पर दिये गए यीशु मसीह के उपदेश को एक यात्रा की तरह देखें और यह जानें कि यह किस प्रकार हो I

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“य ह आनन्द जो मेरे अंदर है, उसको वे कभी भी नहीं ले सकते जब मैं जेल के अंदर था।” यहाँ तक कि इस लंबी कठिन परीक्षा के बाद भी रे हिंटन एक रेडियो इंटरव्यू में यह कह सका। मैंने सुना कि कठिन समय में उसने शांति का अनुभव किया। “तब परमेश्वर की शांति, जो सारी समझ से परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।” (फिलिप्पियों 4:7) पर यह शांति स्वत: ही नहीं आई। रे ने बताया कि जिसने उसके साथ गलत किया था, उसे उन पर बहुत क्रोध आया, और ऐसा भी समय था जबकि वह निराशा में डूब जाता था। अपने इस तूफान के बीच में, रे को अपने हृदय को संभाल कर रखना था।

          विशेषज्ञों के सुझाव अनुसार, लचीली प्रव्रत्ति को विकसित करने के लिए पहला कदम है सकारात्मक विचारों का मूल्य जानना और उन्हें उपजाना, जैसे कि शांति और आशा, जबकि नकारात्मक को दूर रखना जैसे कि कड़वाहट, दुख और क्रोध। अपने उपदेश में यीशु मसीह ने हमें ये कुछ उपकरण दिये हैं। उन्होने कड़वाहट का सामना करने के लिए क्षमा का हथियार बताया है। (मत्ती 6:12, 14-15) क्रोध पर नियंत्रण के लिए समाधान (सुलह) करना। और समानुभूति को विकसित करने के लिए हमें इसका अच्छे से वर्णन करना होगा। (मत्ती 7:12) पर शायद सबसे महत्त्वपूर्ण सहायता हमें तब मिलेगी जब हम निराशा और चिंता का मुक़ाबला कर सकेंगे।

निराशा का सामना कैसे करें

प्रथम शताब्दी में जीवन कठिन था। कोई आधुनिक औषधियाँ नहीं थीं जो बीमारी को ठीक कर सके, न ही उन लोगों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा थी जो उनकी सहायता कर सके जो काम करने के लिए बहुत निर्बल थे। रोमन प्रशासन गैर अनुपालकों को फांसी पर चढ़ा देते थे और भेद भाव बहुत अधिक था। इन्हीं परिस्थितियों के बीच ही यीशु ने अपने पहाड़ी के उपदेश आरंभ किए।

“धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएंगे। धन्य हैं वे, जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे। धन्य हैं वे, जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएंगे। धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी। धन्य हैं वे, जिनके मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे। धन्य हैं वे, जो मेल कराने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे। धन्य हैं वे, जो धर्म के कारण सताये जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। (मत्ती 5: 3-10)

         हालांकि पहाड़ी के उपदेश सुनकर उन्हें लागू करने के लिए है I (मत्ती 7:24) मेरा ऐसा विश्वास है कि यदि हम इन उपदेशों को एक कार्य सूची के रूप में देखें तो अधिकतर गलत अर्थ लगा लेते हैं। यीशु यह नहीं कह रहे हैं कि हमें अपने आपको गरीब बनाना है, दुखी, अधीन या स्वर्ग के राज्य को पाने के लिए स्वयं को प्रताड़ित करवाना है। वह बताना चाह रहा है कि हमारी कैसी भी परिस्थिति हो, हमें आनंद उसी हृदय से मिलेगा जो परमेश्वर के राज्य के मूल्य को प्रतिबिम्बित करता हो। एक अन्य अवसर पर यीशु ने कहा, यह संभव है कि तुम आशीष पाओगे चाहे तुम्हारे पास भौतिक संसाधन न हो या ऐसी परिस्थिति जिसके लिए सफलता और खुशी अनिवार्य है। (लूका 6:20-23)

         इस प्रकार की शिक्षा उस धार्मिक संसार में अस्वीकार्य होंगी जो संसार भौतिक संसाधनों के होने को ईश्वर की आशीषे मानता है। यीशु के समय में “आशीषित’ जिस कारण से माने जाते थे आज भी उसी कारण से आशीषित माने जाते हैं। यदि आप एक अच्छे पद पर हैं, एक आदर्श परिवार है, यदि आप प्रसिद्ध हैं, सुंदर हैं, प्रभावशाली और सफल हैं। ये ऐसे लोग हैं जो प्रत्येक पार्टी(समारोह) में बुलाए जाते हैं। पर ये वो लोग नहीं हैं जिन्हें यीशु आशीषित करता है।

        यीशु ने अपना उपदेश इस आश्चर्यजनक नोट(टिप्पणी) के साथ आरंभ किया: उसका साम्राज्य सबके लिए खुला है, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो। “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं। क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” (मत्ती 5:3) जो शोकित हैं और नम्र हैं (पद 4-5) धन्य हैं वे जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, पर न्याय नहीं पाते हैं। (पद 6) जो दयावन्त हैं और धार्मिकता के साथ रहते हैं। (पद 7-8) वे जो मेल करने वाले हैं, न कि राजनैतिक तेजतर्रार हैं (पद 9) जो सच्चाई और यीशु के पीछे चलने के कारण सताये जाते हैं (पद 10-11)। यीशु ने देखा कि लोग समाज के द्वारा ठुकराये जाते हैं और उसने अपना साम्राज्य पेश किया। उस साम्राज्य में आराम, न्याय, भरपूरी, सब संसाधन के अतिरिक्त उस सब में भागीदारी भी है जो यीशु का है।

        और यह हमारी आशा का आधार बन जाता है। समझदारी, सकारात्मक सोच और कई तकनीकें हमें आशावादी भावनाओं को उपजाने में सहायक हो सकती हैं। पर सच्ची आशा को इस कारण पर विश्वास करना होगा कि हमारा भविष्य भिन्न होगा, और हमारा भविष्य बदल जाएगा। यीशु के पहाड़ी उपदेश हमें यही सुझाव देते हैं। जैसे कि रे हिंटन ने कहा, “कोई ऊपर है जो जानता है।” और उसने आराम, न्याय और संसाधनों की प्रतिज्ञा करी है।

         एक बार मैंने एक सम्मेलन को सम्बोद्धित किया जो कि मसीही सहायक-कर्मियों के लिए जो यूरोप में काम कर रहे थे। यह मसीही प्रचारक शरणार्थियों, तस्करों और जो आर्थिक परिस्थितियों के कारण बहुत गरीब हो गए थे उनकी सहायता कर रहे थे। “पहाड़ी उपदेश उनके लिए क्या कहते हैं जो दूसरों की सेवा कर रहे हैं।” मैंने एक सुबह पूछा। उनका उत्तर आया:”जबकि दूसरों ने उन्हें प्रताड़ा, नकारा और शोषित किया, हमारा परमेश्वर उनके लिए है।” फिर मैंने पूछा पहाड़ी उपदेश तुम्हें एक मसीही सेवा कर्मी होने के कारण क्या कहते हैं। “एक आशा है – उनके लिए जिनके साथ हम काम करते हैं, और हमारे लिए भी।”

चिंता का सामना करने के लिए शांति

यदि पहाड़ी के उपदेश निराशा का सामना करने के लिए आशा का सुझाव देते हैं, तो यह भावनाओं के लिए सबसे व्यावहारिक सहायता होगी, ताकि चिंता को नियंत्रित कैसे किया जा सके। किशोरावस्था में हम सोचते हैं कि हम इसमें कैसे ठीक बैठेंगे। 20 वर्षीय होने पर हम अपने भविष्य, नौकरी और अपने जीवन साथी के विषय में चिंता करते हैं। वयस्क होने पर हम बैंक के ऋण (लोन) की और परिवार के अच्छे से रखरखाव की चिंता करते हैं। और विज्ञापन करने वाले इस प्रकार के भय को दूर करने के लिए अपने माल को बेचने के लिए हर प्रकार के शोषण के लिए तैयार रहते हैं= और विज्ञापन करने वाले अपना माल बेचने के लिए इस प्रकार के भय का शोषण करने के लिए तैयार रहते है, हम चिंता के कारण उत्तेजित होते जाते हैं।

         पहाड़ी उपदेश में यीशु ने चिंता की आदत को छोड़ने के दो व्यापक कारण बताए हैं। एक व्यावहारिक है: “तुम में कौन है, जो चिंता करके अपनी अवस्था में एक घड़ी भी बढ़ा सकता है?” (मत्ती 6:27) नहीं, इसलिए, “अत: कल की चिंता न करो, क्योंकि कल का दिन अपनी चिंता आप कर लेगा; आज के लिए आज ही का दुख बहुत है।” (पद 34) इसलिए ऐसी रणनीति को छोड़ दो जो काम नहीं करती है।

उसका दूसरा कारण है अध्यात्मिक: चिंता का अर्थ है परमेश्वर के कार्यों को अपने जीवन में भूल जाना। इस बात को बताने के लिए, यीशु ने हमें प्राकृतिक संसार पर ध्यान का मार्ग बताया। अपनी आवश्यकताओं की चिंता के अपितु, उसने कहा:

“आकाश के पक्षियों को देखो! वे न तो बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; फिर भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?

         “और वस्त्र के लिए क्यों चिंता करते हो? जंगली सोसनों पर ध्यान् करो कि वे कैसे बढ़ते हैं; वे न तो परिश्रम करते, न कातते हैं। तौभी मैं तुम से कहता हूँ कि सुलैमान भी अपने सारे वैभव में उनमें से किसी के समान वस्त्र पहिने हुए न था। इसलिए जब परमेश्वर मैदान की घास को जो आज है और कल भाड़ में झोंकी जाएगी, ऐसा वस्त्र पहिनता है, तो हे अल्पविश्वासियों, तुम को वह इनसे बढ़कर क्यों न पहिनाएगा?” (मत्ती 6:28-30)

         “पक्षियों, छोटी चिड़ियों को देखो; किस प्रकार उन्हें परमेश्वर “खिलाता” है। देखो खेत सदाबहार (dasies) और सिंहर्पर्णीफूलों (dandelions) से कितने “सुंदर सजे” हुए हैं । देखो – परमेश्वर अभी क्रियाशील है, प्रकृति के लिए सब कुछ कर रहा है। वह आपके जीवन में भी कार्य कर रहा है। वह आपकी देखभाल करेगा।

         यीशु के सुझाव को हूबहू मानना आपके लिए बहुत ही सहायक होगा। कैसा रहेगा यदि आप इस सप्ताह शांति से प्रकृति में कुछ समय पैदल चलें? आप धीरे धीरे आरंभ कर सकते हैं, अपने पद चिन्हों को महसूस करते हुए, अपने शरीर को धीरे धीरे गहराई से सांस लेते, आराम देते हुए चलें। तब आप स्वत: ही अपने आस पास के परिवेश पर ध्यान देने लगेंगे — सूरज और आपके शरीर पर उसकी गर्मी, वायु और उसका आपके चेहरे पर कोमल स्पर्श, पत्तियों की सरसराहट, चिड़ियों का चहचहाना। आप प्रकृति को देखें कि किस प्रकार फल फूल रही है, बिना आपके कुछ भी करे हुए। तब आप परमेश्वर के पास आपको जो भी अप्रिय लग रहा उसे इस विश्वास के साथ लाएँ कि —

— तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है कि तुम्हें इन सब वस्तुओं की आवश्यकता है। इसलिए पहले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएंगी,(मत्ती 6:32-33)

          यीशु मसीह हमें आशाओं, रोना और हृदय की चिंताओं का समाधान बताता है। और एक स्वस्थ ह्रदय सामर्थ प्राप्त करने के लिए पहला कदम है।

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क क्षण के लिए कल्पना करें  कि आपका देश संकट में है, और आपको उसे ठीक करने के लिए अध्यक्ष चुना गया है। कल्पना करें कि आपके पास देश में शांति और संपन्नता लाने के लिए एक आश्वस्त (गारंटिड) योजना है, और आप उसमे किसी को भी अपने साथ इस सेवा के लिए चुन सकते हैं। आप किस प्रकार के लोग चुनेगे? आप अवश्य ही उत्तम नेतृत्व करने वाले, अर्थशास्त्री, और रणनीतिकार को चुनेंगे। ठीक है न? प्रसिद्ध लोग, प्रभाववशाली लोग। जिनके पास शक्ति है और प्रभावी हैं। कोई भी छोटे, महत्वहीन लोगों को इस कार्य के लिए नहीं चुनेगा।

           यदि वे यीशु न हों तो।
यह विचार करना मनमोहक होगा कि उपदेश के समय यीशु के श्रोता कौन थे। हमें बताया गया कि चेलों के साथ, भीड़ ने भी सुना था I (मत्ती 5:1,7:28) वह भीड़ आस पास के क्षेत्रों से आई होगी जो यीशु के पास चंगाई के लिए आए थे (4:23-25) और वह एक मिश्रित लोगों का समूह था। कुछ बीमार थे, कुछ को मिर्गी के दौरे आते थे, कुछ लकवाग्रसित थे और कुछ में दुष्ट आत्मा समाई थीं। वे साधारण किसान, मजदूर और घर में काम करने वाले थे — न कि समाज के ऊंचे पद के लोग। इसलिए यीशु जो भी उनसे कहते वह उनके लिए गंभीर, प्रगाढ़ और लचीली प्रव्रत्ति का निर्माण करने वाला था।

प्रभावशाली लोग

यीशु मसीह के शब्द यहाँ पर अधिक व्यक्तिगत हो गए। बजाय इसके कि यीशु ने “वे” शब्द जिनके लिए स्वर्ग के राज्य के विषय में कहे, अब कहते हैं, “धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निंदा करें, और सताएँ और झूठ बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। तब आनंदित और मगन होना, क्योंकि तुम्हारे लिए स्वर्ग में बड़ा फल है।” (मत्ती 5:11-12)

         फिर वह कहता है:

“तुम पृथ्वी के नमक हो; परंतु यदि नमक का स्वाद बिगड़ जाए, तो वह फिर किस वस्तु से नमकीन किया जाएगा? फिर वह किसी काम का नहीं, केवल इसके कि बाहर फेंका जाए और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाए।” (मत्ती 5:13)

          नमकदानी के विषय में सोचें जिसे भोजन बनाने के लिए काम में लाते हैं — नमक से भोजन में स्वाद आता है। अब सोचें एक कसाई मांस को खराब होने से बचाने के लिए नमक का प्रयोग करता है — नमक सड़ने या नाश होने से बचाता है। यीशु इस चित्रण को अपने श्रोताओं को महत्त्वपूर्ण बुलाहट के लिए चिन्हित करता है। वे अपने गाँव या घरों में जो अच्छा है उसको बढ़ाने वाले होने चाहिए। उनका समाज में सकारात्मक प्रभाव होना चाहिए ताकि वे उसे खराब होने से रोक सकें। ये किसान और घरेलू लोग इन उपदेशों को अपनाने के द्वारा संसार में बदलाव लाने वाले होने चाहिए।

          एक बार मैं डॉमनिकन रिपब्लिक के सेंटो डोमिंगो के बहुत ही गरीब मोहल्ले में गया, जो संक्षारित लोहे के बने हुए थे, और बिजली के तार हमारे ऊपर झूल रहे थे। मैं वहाँ पर उन परिवारों का इंटरव्यू लेने गया था कि गिरजे (चर्च) उनके रोजगार, नशे की लत और अपराध को रोकने के लिए किस प्रकार सहायता कर रहे हैं।

          एक गली में मैं एक सूखी सी हिलती डुलती सीढ़ी से एक छोटे से कमरे में एक माँ और उसके बेटे से मिलने को घुसा। पर कुछ ही क्षण बाद, कोई भाग कर आ कर कहने लगा कि हमें जल्दी ही यहाँ से निकलना होगा। वह एक चाकू मारने वाले गिरोह का लीडर था जो कि हमारी घात के लिए भीड़ को एकत्रित कर रहा था। हम तुरंत ही वहाँ से निकल गए!

          हम दूसरे पड़ोस में गए, पर हमें वहाँ पर कोई समस्या नहीं हुई। बाद में मुझे मालूम हुआ कि क्यों नहीं हुई। जब कि मैं प्रत्येक घर में गया, एक दूसरे गिरोह का नेता (उस क्षेत्र का सबसे भयानक) बाहर खड़ा होकर हमारी रक्षा कर रहा था। पता चला कि उसकी बेटी को चर्च द्वारा शिक्षा और भोजन मिल रहा था, और क्योंकि मसीही उसके आसपास खड़े थे, वह हमारे साथ खड़े रहना चाहता था।

         सेंटो डोमिंगो के मसीहियों की न तो कोई सामाजिक हैसियत थी न ही कोई राजनैतिक शक्ति। सब उतने ही गरीब थे जितने उनके आसपास के लोग पर वे अपने समुदाय को बढ़ावा दे कर उसको नाश होने से बचा रहे थे। वे संसार के नमक थे और उनका समुदाय बदल रहा था।

प्रकाश के लोग

पर यीशु को उन के लिए कुछ और कहना है जो उसको सुन रहे थे:

“तुम जगत की ज्योति हो। जो नगर पहाड़ पर बसा हुआ है वह छिप नहीं सकता। और लोग दीया जलाकर पैमाने के नीचे नहीं परंतु दीवट पर रखते हैं, तब उस से घर के सब लोगों को प्रकाश पंहुचता है। उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में है, बढ़ाई करे।” (मत्ती 5:14-16)

         एक ऐसे शहर के विषय में सोचें जिसकी इमारतें रात को प्रकाश से जगमगाती हैं। — प्रकाश अंधेरे को चीरता है। एक टॉर्च के विषय में सोचें जिसे अंधेरे कमरे में ले जाते हैं — उसके प्रकाश से छिपी हुई चीज़ें पता चलती हैं। उसी प्रकार, यीशु अपने श्रोताओं को अपने अच्छे कामों से प्रकाश फैलाने को कहता है। इस प्रकार से वे जगत के अंधेरे को रोक सकेंगे, उस ईश्वर को जिसे उन्होने देखा नहीं है, जिसके पीछे चल रहे हैं, उसको बता सकेंगे। और अपने पड़ौसियों को जीने का दूसरा मार्ग बता सकेंगे।

         तुमने जेम्स और एन का नाम शायद कभी नहीं सुना होगा, न वे दूरदर्शन पर, न उन्होने कोई पुस्तक लिखी या उनका कोई ऑफिस था। वे केवल एक युवा दंपत्ती हैं जो साम्यवादी (कम्युनिस्ट) चीन में रहते हैं। तब चीन में केवल ‘एक-बच्चा नीति’ आई। यदि किसी भी दंपत्ती के दूसरा बच्चा होता तो उन्हें बहुत सारे भेद भाव और आर्थिक जुर्माने का सामना करना पड़ता था। इसलिए जब एन दोबारा से गर्भवती हुई, उन्हें ज्ञात था कि सरकार उनसे क्या चाहती है: उन्हें गर्भपात करवाना होगा।

        यह दबाव तब अधिक बड़ा जब चिकित्सकों ने बताया कि जो बच्चा एन की कोख में है उसके हृदय में कुछ विशेष दोष हैं। डॉक्टर ने साधारण शब्दों में बताया, “तुम्हें गर्भपात करवाना होगा।” एक ऐसे देश में जहां पर विकलांगों के लिए बहुत कम सहायता है, यह एक “तर्क” था कि आपको गर्भपात करना पड़ेगा।

         फिर परिवार से दबाव आया। जेम्स और एन इस प्रकार के विशेष बच्चे की जरूरतों को पूरा कर उसका भरण पोषण नहीं कर पाएंगे। उनके समाज में इसे कलंक माना जाएगा। उनके अभिभावकों ने उन्हे साफ कह दिया, “तुम्हें गर्भपात करवाना होगा।”

         उनका पारिवारिक डॉक्टर, परिवार, और समाज — जेम्स और एन को हर तरफ से दबाव झेलना पड़ा पर प्रत्येक को उन्होने यह उत्तर दिया, “हम गर्भपात नहीं करवाएँगे। चाहे हमारा बच्चा विकलांग हो। वह परमेश्वर की ओर से एक तोहफा है और उसके प्रारूप में रचा गया है।” छोटी चेन यू अच्छे से पैदा हुई। जेम्स और एन ने उसकी मृत्यु से पहले उसके साथ 7 सप्ताह बिताए।

         जेम्स और एन अब सबकी नज़रों के सामने थे। डॉक्टर उनके विश्वास से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कहा, “यदि प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार करें जैसा इन्होंने किया है, तो हमारा देश एक भिन्न(अलग) प्रकार का देश होगा।” उसने उनसे अपने चिकित्सा अध्ययन करने वाले छात्रों को अपना अनुभव साझा करने को कहा, कि क्या कारण था कि उन्होने चेन यू के साथ इस प्रकार का अच्छा व्यवहार किया। इसलिए एक ऐसा दंपत्ती जिसके पास न शक्ति न कोई पद था वे संसार के लिए प्रकाश बन गए, इस संसार को जीने का एक अलग मार्ग, एक अनदेखे ईश्वर की छवि दिखा कर बता गए।

आत्मा से भरपूर उपलब्धि

“तुम पृथ्वी का नमक हो — तुम संसार के प्रकाश हो —” यीशु के ये शब्द आज के हमारे विषय के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे कि विशेषज्ञ कहते हैं, लचीली प्रव्रत्ति के लिए दूसरा मुख्य कारक है उपलब्धि की समझ होना। चाहे एक उद्देश्य प्राप्त करना हो, एक कौशल का महारथी होना, या एक ऐसा काम करना जो व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण हो।

         यद्यपि यीशु ने कभी भी किसी भी चीज़ में महारथी होना या लक्ष्य हासिल करना नहीं बताया। उसने हमारे लिए एक और ऊंचा उपलब्धि का स्तर ठहराया। बहुत उच्च कोटि के या शक्तिशाली लोगों को चुनने के बजाय, यीशु ने सबसे कम: साधारण मनुष्य, जो कि प्रकाश और नमक से व्यावहारिक काम, उसकी आत्मा की शक्ति से करते हैं।

         अपने उपदेश के अंत में, यीशु ने प्रार्थना के विषय में बात करी, हमें इस बात के लिए आश्वस्त करते हुए कि हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते है, कि हमें जो चाहिए वह हमें देगा। “तुम में से ऐसा कौन मनुष्य है, कि यदि उसका पुत्र उससे रोटी मांगे, तो वह उसे पत्थर दे। या मछ्ली मांगे, तो उसे साँप दे? अत: जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को अच्छी वस्तुएँ क्यों न देगा?” (मत्ती 7:9-11) एक अन्य अवसर पर यीशु ने कहा, “अत: जब तुम बुरे होकर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को पवित्र आत्मा क्यों न देगा?” (लूका 11:13)

         पवित्र आत्मा ही वह कुंजी है जो हमें यीशु के पहाड़ी उपदेशों को जीना सिखाती है। जब हम विश्वास करते हैं तो पवित्र आत्मा हमारे अंदर आ कर यीशु के शब्द याद दिलाती है और उसके अनुसार जीने की शक्ति देती है। ( यूहन्ना 14:15-18, 23-26) जिस प्रकार से पौलुस ने बाद में समझाया, आत्मा के द्वारा यीशु हमारे अंदर काम कर के हमें अधिक प्रेममय, प्रसन्न, विश्वासी और नम्र बनाता है (गलतियों 5:16-26) और आत्मा एक नदी की तरह, हमारे हृदय में से बह कर हमें छू कर और दूसरों की सेवा के लिए काम करेगा। (यूहन्ना 7:38-39; प्रेरितों के काम 1:8) इसका यह अर्थ है कि मसीही जीवन अधिक परिश्रम करना नहीं पर परमेश्वर से पवित्र आत्मा को हमारे अंदर भर कर उसके द्वारा काम करने को मांगना है। इसका अर्थ है नमक और प्रकाश को पूरा करने के लिए थोड़ा अधिक हमारी दीनता, उपलब्धता और इच्छा की आवश्यकता है।

         किसी किसी दिन हमें लगता है कि हम कुछ भी नहीं हैं, संसार में हमारा महत्व कम होता जा रहा है। पर यीशु हमें बताते हैं कि हमारी स्थिति एक गहन उपलब्धता है। हम स्वयं को जितना जानते हैं, उससे अधिक शक्तिशाली हैं।

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दुकान में पत्रिकाओ की  रैक पर एक नज़र डालो। असीमित पंक्तियाँ आप पढ़ेगे, किसने प्रेम पाया, किसने प्रेम खोया, इसी प्रकार की कभी समाप्त न होने वाली सूची कि किस प्रकार प्रेम को प्राप्त किया जाए और कैसे प्रेम किया जाए। उन सिनेमा को देखो या उनके संगीत को सुनो जो आपके गानों की सूची में हैं, तो प्रेम सबसे प्रभावशाली विषय है, जो संबंधों के लिए हमारी गहरी चाह को दर्शाता है I

         विशेषज्ञों के अनुसार, मजबूत रिश्ते या संबंध लचीली प्रव्रत्ति को विकसित करने की महत्वपूर्ण कुंजी है। मनोवैज्ञानिक मार्टिन सेलिगमेन कहते हैं – “सकारात्मक चीज़ें कभी अकेले नहीं आती हैं।” “दूसरे लोगों का साथ, जीवन के उतार चढ़ाव में बहुत उत्तम औषधि है।” हम जीवन में तूफानों का सामना तब कर पाते हैं जब हमारा विवाह सुखमय हो, अच्छी दोस्ती और समाज के साथ अच्छे संबंध हों। समस्या यह है कि जब हम इसकी चाह रखते हैं, शक्तिशाली ताक़तें इसको तोड़ने का प्रयास करती हैं।

         यीशु ने पहाड़ी पर उपदेश में सम्बन्धों को काफी समय दिया। उन्होने चार मुख्य शक्तियों पर विशेष ज़ोर डाला जो कि उन्हें नष्ट करती हैं — क्रोध, अविश्वास, झूठे वायदे और बदले की भावना (मत्ती 5:21-42)। यीशु के उपदेश का केंद्र बिन्दु ही यह है। परमेश्वर के साथ अपने पूरे हृदय से प्रेम रखना। और क्योंकि यह बहुत ही महत्वपूर्ण है, उसके शब्द यहाँ पर रूखे लगते हैं।

क्रोध से समाधान की ओर

उसके साम्राज्य की आशीषों के विषय में वर्णन करने के बाद, यीशु अब क्रोध की बात करते हैं। पंक्ति को आरंभ से समझें, मुट्ठी को घूमाना, या चाकू का वार यह सब क्रोध भड़काने की जड़ है। इसको यीशु ने कहा कि यह भी हत्या की भावना मानी जाएगी। (मत्ती 5:22) और इसकी उपस्थिती का चिन्ह यह है जब हम दूसरों को अपनी बातों से कम महत्व देते हैं। (5:22 बी)

         हम हर जगह इस बात की सच्चाई को देखते हैं: स्कूल के मैदान में जहां पर गलत/क्रूर नामों से संबोधित किया जाता है जो कभी न भुलाए जाने वाले निशान छोड़ जाते हैं, खेल के मैदान पर जातीय टिप्पणी करते हैं, सामाजिक प्लेटफॉर्म (मंच) जहां पर विरोध एक कला का नमूना बन गया है। जैसे कि भयानक 1994 में रवांडा नरसंहार तुतसी और हुतू समुदाय के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था, जहां पर हुतू को उनके कट्टर नेताओं ने उनके तुतसी शत्रुओं को “कॉकरोच” बोलने के लिए उत्तेजित किया।

         यीशु को मालूम है हम में कई बातों में असहमती होगी, पर असहमती होने पर किसी की बेइज्जती ने करें। अपितु समाधान करें या आपस में सुलह कर लें।

“इसलिए यदि तू अपनी भेंट वेदी पर लाये, और वहाँ तू स्मरण करे, कि तेरे भाई के मन में तेरे लिए कुछ विरोध है, तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़ दे, और जाकर पहले अपने भाई से मेलमिलाप कर और तब आकर अपनी भेंट चढ़ा। जब तक तू अपने मुद्दई के साथ मार्ग ही में है, उस से झटपट मेलमिलाप कर ले कहीं ऐसा न हो कि मुद्दई तुझे हाकिम को सौंपे और हाकिम तुझे सिपाही को सौंप दे, और तू बंदीगृह में डाल दिया जाए।” (मत्ती 5:23-25)

         यदि आप जानते हैं कि आपने चर्च में किसी को अपमानित किया है, तो अराधना छोड़ कर पहले उस मुद्दे का समाधान करें। यदि पड़ोसी के साथ झगड़ा हो जाता है, न्यायालय में जाने से पहले ही समाधान या सुलह कर ले। यीशु कहते हैं जहां तक हो सुलह कर लो।

अविश्वास से विश्वास की ओर

विचारों को उथल पुथल कर देने वाली अपनी एक पुस्तक ‘द जौन्स’ में पत्रकार विक्टर मालारेक ने उन व्यक्तियों की प्रेरणा के विषय में बताया जो वेश्याओं की सेवाएँ प्राप्त करते थे। अधिकतर मामलों में अश्लील सामग्री (पोर्नोग्राफी) ही सौदो को बढ़ावा देती थी। व्यक्ति कल्पना करते थे जैसा अनुभव उन्हें चाहिए था, और फिर ऐसी स्त्री को ढूंढते थे जो उसे पूरा कर पाएगी, उसी कल्पना के आधार पर काम होता था।

        येशु ने दो सहस्त्राब्दी पहले उसी नमूने को प्रकट किया था I व्यभिचार एक कल्पना से शुरू होता है,जो कल्पना को ही पाप बना देता है (मत्ती 5:28) क्योंकि येशु की हर चीज़ में ह्रदय केंद्रीय रहता है, इसलिए वह अपने सुधारात्मक सन्देश को अच्छे से समझाने के लिए उसके साथ अतिश्योक्ति (Hyperbole) का उपयोग करते है:वफादार रहो I

यदि तेरी दाहिनी आँख तुझे ठोकर खिलाये, तो उसे निकाल कर फेंक दे। यदि तेरा आँख या हाथ तुझे ठोकर खिलाये, तो अंधे या लूले हो जाओ इससे पहले कि आपका हृदय और शरीर उसके पीछे चले, या सारा शरीर नरक में झोंका जाए। (मत्ती 5:29-30)

         अपनी आँखें बंद करो, चैनल और कंप्यूटर बंद कर दो, वहाँ से चले जाओं, ऐसा उपाय करो कि पाप करना असंभव हो जाए। विवाह एक पवित्र वादा है, (मत्ती 5:32) इसलिए अपने वर्तमान या भविष्य में आने वाले के प्रति विश्वासयोग्य रहें, किसी ऐसे के साथ नहीं जुड़ें जो आपका नहीं है। यीशु ने कहा, यहाँ तक कि कल्पना में भी ऐसा न करें, और उसका साथ कभी न छोड़ें जिसके साथ आपको जोड़ा गया है।

झूठी प्रतिज्ञा से विश्वास की ओर

बहुत सारे विवाहों, मित्रता और व्यावसायिक सम्बन्धों में अविश्वास के कारण दरार आ जाती है या वे टूट जाते हैं। प्रतिज्ञाएं या वादे किए जाते हैं पर भुला दिये जाते हैं। अनुबंधों में भी बचाव का रास्ता बदल कर उसके द्वारा भी शोषण किया जाता है। यीशु इसे सम्बन्धों को नष्ट करने वाली शक्ति बताते हैं।

         यीशु के समय में यह साधारण सी बात थी की लोग किसी भी चीज़ की प्रतिज्ञा शपथ खा कर लेते थे। पर यदि आप वाकपटु हैं, आप भी कानूनी रूप से कोई बचाव का रास्ता ढूंढ सकते हैं। जो शपथ “ईश्वर” का नाम ले कर ली जाती है वो सदैव बंधन में होती हैं, पर जो “स्वर्ग”, “पृथ्वी”, “यरूश्लेम” और किसी चीज़ की, उसमें इतना बंधन नहीं होता है। अपने शब्दों को उस समय ध्यानपूर्वक चुनें, अन्यथा आप वह प्रतिज्ञा कर लेंगे जिसकी आपको आवश्यकता नहीं है।

         यीशु को यह अस्वीकार था। क्योंकि परमेश्वर से कुछ भी अलग नहीं है — चाहे स्वर्ग, पृथ्वी या और कुछ — कोई भी शपथ या प्रतिज्ञा जो उनके नाम से की जाती है वह परमेश्वर के लिए ही होती है। यीशु ने शपथ की निंदा की क्योंकि प्राय: हाँ या न कहना व्यर्थ हो जाता है (5:33-36) अपितु यीशु ने कहा सच्चे बनो:

“परंतु तुम्हारी बात ”हाँ” की “हाँ”, या “नहीं” की “नहीं” हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है।” (मत्ती 5:37)

बदले से अनुग्रह की ओर

अंतत: यीशु बदला लेने की भावना का समाधान ढूंढ चुके थे। जबकि यहूदी नियमों की सीमा बांध चुके थे, और आँख के बदले आँख का, और दाँत के बदले दांत का, उदाहरणत: मैं तुम्हारी जान नहीं ले सकता हूँ (निर्गमन 21:23-25, मत्ती 5:38) यीशु ने एक अन्य प्र्त्युत्तर दिया जिसने इतिहास को हिला दिया। उसने तीन परिदृश्यों को बताया।

         यीशु के समय में एक गाल पर चांटा मारना हमला नहीं पर बेइज्जती समझी जाती थी; आपकी कमीज़ उतरवाने के मुक़द्दमे का अर्थ था कि आप इतने गरीब हैं कि अपना बिल नहीं भर पा रहे हैं और अब अपने वस्त्रों को खो रहे हैं, और रोमन सैनिकों के समान उठाना बहुत ही घटिया काम था जो एक यहूदी से कराया जाता था। यीशु ने इस प्रकार के शर्मनाक अनुभवों को इस प्रकार समझाया कि दोषी बिना बदले के प्रत्युतर दे (मत्ती 5:39-41) चांटा मारने पर पलटकर चांटा मारने से अच्छा है अपने दूसरा गाल उसकी तरफ फेर देना। यदि कोई कुर्ता लेना चाहे, तो उसे दोहर भी ले लेने दें। रोमन नियमों का विरोध करने के बजाय, जितना आप से अपेक्षित है उसके आगे जाएँ। संक्षिप्त में न तो दुर्व्यवहार के सामने समर्पण करें, ना पलट कर वार करें, पर इस प्रकार प्रत्युत्तर दें जो कि अनुग्रह के उत्तम उदाहरण हो।

“परंतु मैं तुमसे यह कहता हूँ कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सतानेवालों के लिए प्रार्थना करो। जिस से तुम अपने स्वर्गीय पिता की संतान ठहरोगे। (मत्ती 5:44-45)

         यही रे हिंटन ने अपने कैद के समय मे किया था, अपने शत्रुओं के लिए प्रतिदिन प्रार्थना करना। कई बार इस प्रकार का अनुग्रह दिखाने से शत्रु भी बदल जाते हैं।

         1996 में एक शनिवार की रात, 19 वर्षीय डैनी गिवंस एक सैनिक पूर्व-कर्मियों के क्लब मे सशस्त्र डकैती के लिए गया। ड्यूटी के बाद ऑफिसर आर्ट ब्लेकी अंदर था, जब उसने डैनी का सामना किया, डैनी ने उसके शरीर के एक ओर गोली मार दी। पर जल्द ही डैनी जेल में था।

         1996 में एक शनिवार की रात, 19 वर्षीय डैनी गिवंस एक सैनिक पूर्व-कर्मियों के क्लब मे सशस्त्र डकैती के लिए गया। ड्यूटी के बाद ऑफिसर आर्ट ब्लेकी अंदर था, जब उसने डैनी का सामना किया, डैनी ने उसके शरीर के एक ओर गोली मार दी। पर जल्द ही डैनी जेल में था।

         आर्ट ने डैनी के प्रगति के उन वर्षो पर नज़र रखी, वह उसकी माँ के संपर्क में भी रहा। जब डैनी जेल में एक मसीही बन गया, आर्ट फिर कार्यवाही में जुट गया I  और अधिकारियों से विनती करने लगा कि डैनी को जल्दी रिहा कर दें। डैनी ने बताया, “पूरे समय जब तक कि मैं जेल में था, मुझे पता था इस भले मनुष्य के पास मेरे लिए सिर्फ़ प्रेम था। मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैंने एक स्वर्ग दूत पर गोली चलाई हो।”

         डैनी को परख(probation) के तौर पर 12 वर्षों बाद छोड़ दिया गया। एक बार सड़क पर चलते हुए उसे एक पुलिस कार में से एक पुलिस ऑफिसर ने रोका। “मुझे तुम पर बहुत गर्व है,” ऑफिसर ने कहा और डैनी को गले लगा लिया। “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ और मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है।” वह आर्ट था।

         डैनी ने कहा, “जीवन में मैं तब से सदा आर्ट की तरह ही बनना चाहता था।” अपने प्रति आर्ट का अनुग्रह पाने के फलस्वरुप वह समुदाय का कार्यकर्ता बन गया। यदि आर्ट ने उससे बदला लिया होता, वह भी उसका शत्रु बन जाता। अपने शत्रु से प्रेम करके, वह शत्रु उसके जैसा बन गया।

         यीशु के उपदेश का यह भाग हमसे यह शिक्षा मांग करने वाली है, कि रिश्तों को बनाए रखने के लिए एक हॉलमार्क के कार्ड को भेज देने जैसी भावुकता से पूरा नहीं होगा। जब हम इसमें प्राय: असफल हो जाते हैं, पवित्र आत्मा हमें आगे कदम बढ़ाने के लिए मदद करती है। एक लचीली प्रवृत्ति का जीवन क्रोध, अविश्वास, झूठे वादे, या बदले से नहीं बनता हैं। जितना अधिक हम समाधान, विश्वासयोग्यता, सच्चाई और प्रेम, के लिए पवित्र आत्मा के पास मदद के लिए जाएंगे उतना ही अधिक हम, और डैनी जैसे लोग, और शक्तिशाली हो पाएंगे।

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इंसान केवल भोजन और पानी के लिए भूख नहीं रखते हैं। हमें अर्थपूर्ण जीवन के लिए भी भूख होती है — एक ऐसी भावना कि हमारे जीवन का और भी बड़ा उद्देश्य है, और इसका भी उत्तर है कि हम यहाँ पर क्यों हैं, और यह संसार इस प्रकार का क्यों है। लचीली प्रवृत्ति के शोधकर्ता बताते हैं कि हम उस समय सबसे अधिक शक्तिशाली होते हैं जब हम सेवा के कारण को अपने से बड़ा जानते हैं।

         पहाड़ी उपदेश इस आवश्यकता को भी बताते हैं कि, हमारे सामने इस प्रकार का कारण जो कि धन बनाने से अधिक है (6:19-24), स्व केन्द्रित आध्यात्मिकता (6:1-18) जोखिम और पुरूस्कार से भरा हुआ (7:13-23) और पूर्ण समर्पण की मांग करता हुआ (6:24,33) यही परमेश्वर का राज्य है — एक जीवन परमेश्वर की देखभाल में बिताने और उसके उद्देश्यों के लिए जीना।

लचीली प्रवृत्ति की प्रार्थना

उपदेश में, यीशु ने इस कारण को प्रार्थना में समहित किया है। प्राचीन काल में कुछ रब्बी अपने शिष्यों को अपनी शिक्षाओं का एक सारांश को एक प्रार्थना का नमूना बना कर दे देते थे। यीशु ने हमें एक प्रार्थना का प्रारूप दिया जिसे हम हमारे पिता की प्रार्थना के नाम से जानते हैं। (मत्ती 6:9-13) यह प्रार्थना न केवल समय के साथ निर्देश देने के लिए परखी गई है कि किस प्रकार प्रार्थना करनी है, और उन मूल्यों को भी बताती है जो हमारे जीवन को दिशा निर्देश देते हैं। पर इस बात पर भी दृष्टि डालती है कि परमेश्वर के साथ जीवन कितना अर्थपूर्ण है।

हे हमारे पिता तू जो स्वर्ग में है —

        यह प्रार्थना परमेश्वर से आरंभ होती है, जो स्वयं जीवन की नींव है। और यह बताती है कि परमेश्वर कोई दूर का देवता नहीं है जिसे हमारे जीवन से कोई मतलब नहीं है, बल्कि वह है जो हमारे नजदीक है, हमारी परवाह करता है, और हमारी रक्षा करता है। यदि लचीली प्रवृत्ति समबन्धों पर आधारित होती है, तो यह प्राथमिक संबंध है। परमेश्वर हमें एक पिता की तरह प्रेम करता है और हमें अपने प्रिय बच्चों की तरह गले से लगाता है।

— तेरा नाम पवित्र माना जाए।

        यह विचार, कि लालच, छल और बदला लेना अच्छा लगता है बहुत गलत है, क्योंकि सच्चाई के हृदय में वह रहता है जो अच्छा, शुद्ध और पवित्र है। जैसे कि डालस विल्लर्ड ने कहा, जब तक हम अपना जीवन परमेश्वर के इर्द गिर्द नहीं रखेंगे, उसके नाम को सबसे ऊंचा नहीं मानेगे, इंसान का दिशा सूचक यंत्र (compass) गलत ही दिशा की ओर निशाना करेगा।

तेरा राज्य आए।

         जबकि परमेश्वर हमारा आधिकारिक शासक है, उसने हमें यह स्वतन्त्रता दी है कि हम उसको नकार दें। और ऐसा ही हुआ है — जैसे इतिहास में युद्ध और क्रूरता बताती है। इसलिए हम यहाँ पर प्रार्थना करें कि संसार उसके संरक्षण में और अगुवाई में फिर से आए, इसलिए शैतान का नाश हो और शांति लौट आए।

तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।

         परमेश्वर की इच्छा स्वर्ग में पूरी हो गई है; अब हम यह प्रार्थना कर रहे हैं कि वह पृथ्वी पर भी पूरी हो — हमारे घरों में, आफ़िसों, विश्वविद्यालयों और पड़ोस में। यह हमारा “मुख्य कारण’ होना चाहिए। हमारे जीवन का अंतिम उद्देश्य — बच्चे बढ़े करना, कक्षा में पढ़ाना, सड़कें बनाना, कलाकृति बनाना, और सभी कार्यों को इस प्रकार करना जैसे कि परमेश्वर कर रहा है। आखिरकार हम ही उसकी ओर से संसार में बदलाव लाने वाले मध्यस्थ हैं, थोड़ा सा अधिक स्वर्ग की तरह, एक दिन वह ऐसा बनाएगा।

हमारे दिन भर की रोटी आज हमें दे —

         परमेश्वर हमारी दैनिक अवश्यकताओं की चिंता भी करता है, चाहे भोजन, कपड़े, रोजगार, या घर। हमें अकेला नहीं छोड़ा गया है । हम उससे बिनती करते हैं कि वह हमारी जरूरतों को पूरा करे, जो हमारे आसपास हैं, और उनके लिए भी जिन्हें कमी है।

— हमारे अपराधों को क्षमा कर —

         चाहे विचार से या काम के द्वारा, हमने क्रोध किया है, अविश्वासी हुए हैं, प्रतिज्ञाएं तोड़ी हैं और बदला लेने का सोचा है। सच में, हम में से प्रत्येक अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं न कि परमेश्वर की। इसलिए हमने इस संसार में जो भी बुरा काम किया है उसके लिए क्षमा चाहते हैं। यीशु मृत्यु को प्राप्त हुए और तीसरे दिन जी उठे इसलिए हमारे पाप भी बारिश में कीचड़ की तरह साफ हो जाएंगे। बिना क्षमा किए हुए पाप हमें कमजोर बना देते हैं, पर परमेश्वर की क्षमा हमें शक्तिशाली बनाती है।

— और जिस प्रकार हमने अपने अपराधियो को क्षमा किया है।

         क्योकि कड़वाहट और बदले की भावना बहुत आसानी से बढ़ती जाती है, इसलिए तुरंत उस पर काबू पा लेना चाहिए। किसने आपके साथ गलत किया है? आप किस प्रकार से सुलझा सकते हैं या स्पष्ट कर सकते हैं? प्रार्थना का यह भाग हमें उनसे क्षमा मांगने के लिए स्मरण कराता है जिन्होंने हमारे साथ गलत किया है। इसलिए हम अपने रिश्तों के धागों को जोड़ कर उसे सुधार सकते हैं।

और हमें परीक्षा में न ला, परंतु बुराई से बचा।

         इस संसार की समस्याएँ केवल इन्सानों के कारण ही नहीं है। शैतान के फंदे हमें परीक्षा में डालते हैं, दोष लगाते हैं और निंदा करते हैं। इसलिए हमें शक्ति के लिए प्रार्थना करनी है कि हम ईश्वर की अगुवाई में सही चुनाव कर सकें। हमें पवित्र आत्मा को पुकारना है ताकि हम परीक्षा का सामना कर सकें और उस प्रकार जीएं जैसे की यीशु हमारी स्थिति में होते।

क्योंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही हैं । आमीन।

         यह बाइबल के प्राचीन हस्तलिपि में नहीं पाया गया है, पर इसका अंत बहुत सटीक है। परमेश्वर से आरंभ होकर, अंत भी परमेश्वर से — उसके प्रभुत्व को और मूल्य को संसार में पहचान दिलाते हुए हमारे जीवन को दिशा निर्देश देने के लिए। अंतत: जीवन और उसका अर्थ परमेश्वर के विषय में ही है।

         मनुष्य संसार की समस्याओं का उत्तर चाहते हैं और उस कारण के लिए सेवा देना चाहते हैं जो उनसे भी बड़ा कारण है। यीशु हमें मार्ग बताते हैं: “इसलिए पहले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी।” (मत्ती 6:33)

शक्तिशाली बने रहो

रे हिंटन को एक शक्ति मिली जिसने उसे 30 वर्ष जेल में अन्याय के लिए बिना किसी क्रोध के रहने में सहायता करी। आर्ट ब्लेकी ने अपने आक्रमण करने वाले को बदलने की शक्ति पाई। दोनों ने स्वयं से यह ताकत नहीं पाई। उनके जीवन में वर्षा एवम् लहरे आईं और आँधी उनके विरुद्ध बहीं, तब भी वे अपने परीक्षाओं/संघर्षों (trials) से बच गए क्योंकि उन्होने यीशु के पहाड़ी उपदेशों को अपने जीवन में ढाल लिया था। (मत्ती 7:24-25)

         उनके समान, हम भी ऐसे मौसम से गुज़र सकते हैं जब मूसलाधार वर्षा हमारी खिड़कियों पर आ रही हो या तूफान का शोर हमारी छत पर भयानक आवाज़ कर रहा हो, जब नुकसान की आँधी या हमारे स्वयं के गलत चुनाव हमें तोड़ देते हैं। यीशु ने कभी यह नहीं कहा कि हम जीवन के तूफानों से बच सकते हैं। पर जब वे आते हैं तब वह हमारे साथ रहता है (मत्ती 8:23-27)। इस प्रकार पहाड़ी के उपदेश हमें इस प्रकार की नींव देते हैं जिस पर खड़े होकर हम उन झोंकों का सामना करके उसके साथ बढ़ सकते हैं।

        एक स्वस्थ हृदय, महत्त्वपूर्ण उपलब्धि, मजबूत संबंध, और एक अर्थपूर्ण भावना। यीशु के साम्राज्य में ये चीज़ें उनके लिए आरक्षित नहीं हैं जिनकी प्रतिष्ठा है या जिनके पास संसाधन हैं: वे कमजोर और महत्वहीन लोगों को दिये जाते हैं जिनके हाथ सदा उनको लेने के लिए तैयार रहते हैं। यीशु मसीह के उपदेश ने वह उपकरण दिये है और उसकी आत्मा जिससे हम जैसे छोटे लोगों को शक्ति मिलती है ताकि हम शक्तिशाली हो जाएँ।

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