न् २००४ में जब श्रीलंका और अन्य एशियाई देश भयंकर सुनामी द्वारा प्रभावित हुए, अजीत फरनानडो, जो उस समय पर राष्ट्रीय युवा मसीही संघ के डायरेक्टर थे, उन्होंने उस सुनामी के कारण आए अत्यधिक दुःख और पीड़ा को देखते हुए, एक मूल पुस्तिका लिखी थी जिसका शीर्षक था “सुनामी के बाद”। बाद में इसे अनुकूलित और इस्तेमाल किया गया अमेरिका के खाड़ी तट पर आए तूफान कैटरीना और रीटा से हुए दुष्परिणाम के लिए।

इसका संदेश उन लोगों के लिए शाश्वत है जो अकथनीय आपदाओं और त्रासदियों के साथ समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए, हमने महसूस किया कि हमें कोविड-१९ के इस दुखद समय के दौरान आवश्यकतानुसार इसे अनुकूलित करना चाहिए और पुन: प्रस्तुत करना चाहिए।

हम प्रार्थना करते हैं कि यह आपके लिए आशीषमय हो जैसे हजारों के लिए भी पूरे विश्व भर में है।

~नोवेल बर्मन

कुछ शब्द लेखक द्वारा

जब शहर, राष्ट्र, या यहाँ तक कि महामारी जैसी वैश्विक आपदाएँ हमें प्रभावित करती हैं, तो मसीहियों को शक्ति और मार्गदर्शन के लिए बाइबल की ओर देखना चाहिए और पीड़ित लोगों तक मसीह के प्रेम के साथ पहुँचना चाहिए। इस पुस्तिका के माध्यम से यह मेरा प्रयास है कि मैं बाइबल के अनुसार यह दर्शाऊ कि मसीह के अनुयायियों को आपदाओं से पहले और उसके बाद क्या करना चाहिए। यह मेरी इच्छा है कि यह गहरे संकट का सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति की सहायता कर पाए।

~अजीत फर्नांडो

शक्ति और मार्गदर्शन के लिए बाइबल की ओर देखना चाहिए।

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बाइबल कहती है “रोने का समय है और हंसने का भी समय है; छाती पीटने का समय है और नाचने का भी समय है” (सभोपदेशक ३:४)। आपदा के बाद का समय निश्चित रूप से रोने और शोक करने का समय है।

बाइबल में ऐसे महत्वपूर्ण भाग हैं जिन्हें विलाप कहा जाता है जहाँ परमेश्वर के विश्वासयोग्य लोग जिस अनुभव से वे गुज़र रहे है उस पर शोक मनाते हैं और परमेश्वर से सवाल करते हैं कि उसने उनके साथ ऐसा क्यों होने दिया। कुछ विलाप ऐसे लोगों के है जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से कष्ट उठाया। दूसरे ऐसे लोग हैं जो अपने राष्ट्र से प्रेम करते हैं और देश पर आयी पीड़ा पर शोक मनाते हैं। बाइबिल में एक पूरी पुस्तक है, विलापगीत, जो राष्ट्र पर आयी पीड़ा के कारण शोक मनाने के लिए समर्पित है ।

यिर्मयाह पुकारता है, “भला होता मेरा सिर जल ही जल और मेरी आंखें आंसुओं का सोता होती कि मैं रात दिन अपने मरे हुए लोगों के लिए रोता रहता!” (यिर्मयाह ९:१)। वह रोना चाहता था क्योंकि उसकी आत्मा शोकित थी। उस कथन के बाद यिर्मयाह के शब्द दिखाते हैं कि रोना उसके शोकित ह्रदय को चंगा/शांत करता है।

जब हम अपने परिवार, समुदाय या राष्ट्र के लिए दर्द से जूझते हैं, तो अपना दुख व्यक्त करने से दबाव कम करने में मदद मिलती है और जो हमें अपने आस-पास के लोगों के लिए अधिक उपयोगी बना देता है ।

नहेमायाह के साथ यही हुआ। जब उसने यरूशलेम की बुरी स्थिति के बारे में सुना, वह रोया, विलाप किया, उपवास किया, और कई दिनों तक प्रार्थना की जब तक कि राजा ने इस बात पर गौर किया कि उसके चेहरे पर गहरे दुख के लक्षण है। किंतु शोक का समय बीतने के पश्चात, वह तुरंत काम में लग गया और एक राष्ट्रीय नायक बन गया, जिसकी प्रतिभाशाली नेतृत्व का ढंग एक महान उदाहरण है और लगभग २,५०० साल बाद भी इसका उपयोग किया जाता है।

बाइबल में, हम ऐसे कई तरीके पाते हैं जिससे लोग अपना शोक व्यक्त करते हैं, जैसे उपवास (२ शमूएल १: १२) और टाट ओढ़ना (उत्पत्ति ३७:३४; २ शमूएल ३:३१) और राख पर बैठना (एस्तेर ४: १-३; यिर्मयाह ६ :२६; २५:३४)। हमें शोक व्यक्त करने के ऐसे तरीके खोजने चाहिए जो हमारी अपनी संस्कृति के अनुसार हों।

निश्चित रूप से, एक परिवार, कलीसिया, समुदाय या राष्ट्र के लिए उपवास और प्रार्थना करना त्रासदी के समय में सबसे अधिक इच्छित होता है। श्रीलंका में सुनामी के बाद लोगों ने सफेद झंडा फहरा कर अपने शोक को प्रकट किया। सभी संस्कृति में सभी के अपने खास तरीके होते हैं दुख को अभिव्यक्त करने के।

जब दोरकास की मृत्यु हुई और पतरस उसके घर गया, “सब विधवाएं रोती हुई उसके पास आ खड़ी हुई, और जो कुरते और कपड़े दोरकास ने उनके साथ रहते हुए बनाए थे, दिखाने लगी” (प्रेरितों के काम ९:३९)। इस तरह के दृश्य काफी सामान्य है पवित्र शास्त्र में।

हमें इस बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि हम किस प्रकार अपनी संस्कृति के अनुसार शोक व्यक्त करने के तरीके को अपनी कलीसिया में ला सकते है जो बाइबिल में मिलने वाले विलाप करने के विषय में ज्ञान के समानांतर हो।

हमें शोक व्यक्त करने के ऐसे तरीके खोजने चाहिए जो हमारी अपनी संस्कृति के अनुसार हों।

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GRAPPLING WITH GOD’S SOVEREIGNTY

यह सवाल करना कि ये कठिन परिस्थिति क्यों आयी ,बाइबिल में मिलने वाले विलाप का एक पहलू है। अय्यूब, यिर्मयाह और भजनकर्त्ता जैसे महान संतों का उदाहरण देकर बाइबल हमें इस प्रश्न से निपटने के लिए प्रोत्साहित करती है। अय्यूब ने अपने आसपास क्या हो रहा था, यह समझने के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया। आमतौर पर ऐसे समय से जूझने के अंत में, परमेश्वर के लोग यह मानते हैं कि, क्योंकि परमेश्वर संप्रभु है और जानता है कि क्या हो रहा है, सबसे बुद्धिमानी की बात यह है कि उस पर भरोसा करते रहें। हम इसे अक्सर भजन संहिता में देखते हैं (उदाहरण के लिए, भजन. ७३ )।

संघर्ष के बीच में परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास रखना, हमें दुखद घड़ी में आशाहीन होने से बचाता है। हमें परमेश्वर की प्रतिज्ञा पर भरोसा करना चाहिए कि भयानक त्रासदी में भी वह उनके लिए सब बातों में भलाई ही उत्पन्न करेगा जो उससे प्रेम करते हैं (रोमियों ८ :२८)। हो सकता है कि परमेश्वर की संप्रभुता का यह दृष्टिकोण तुरंत न आए। कभी-कभी हमारे लिए इस पर परमेश्वर से मल्लयुद्ध करना आवश्यक हो जाता है। प्रार्थना और उसके वचन पर मनन करना ऐसे समय में मदद करता है (भजन २७ )। हम आपदा के बीच में हो सकते हैं या उन लोगों की सेवा में लगे हो सकते है जो इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हो। लेकिन हमें परमेश्वर और उसके वचन के साथ बिताने के लिए समय निकालना आवश्यक है।

संघर्ष के बीच में परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास रखना, हमें दुखद घड़ी में आशाहीन होने से बचाता है।

यही कारण है कि परमेश्वर के लोगों को हमेशा एक समुदाय के रूप में उसकी आराधना करना जारी रखना चाहिए, भले ही वह ऑनलाइन हो, भले ही स्थिति कितनी भी गंभीर क्यों न हो। जब हम एक साथ आराधना करते हैं, तो हम उन अनंतकाल की वास्तविकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो हमें परमेश्वर की संप्रभुता की याद दिलाती हैं।

इन सच्चाइयों को जानने के द्वारा, जो उदासी हमे घेरे हुए है उन्हें दूर करने में मदद और उस पर भरोसा रखने की सामर्थ मिलती है कि वह हमारी देखभाल करेगा। परमेश्वर और उसके वचन से शांति पाने के बाद, हमें ऐसी शक्ति मिलती है कि हम खुद को दुख में पड़े लोगों की सेवा के लिए बलिदानसहित अर्पित कर पाए।

सृष्टि के साथ कराहना

हमें यह याद रखना ज़रूरी है कि जब आदम और हव्वा ने परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया, पाप ने संसार में प्रवेश किया और ब्रह्मांड असंतुलित हो गया। बाइबल दर्शाती है सृष्टि अब अभिशाप के अंतर्गत है (उत्पत्ति ३:१७; रोमियो ८:२॰)। अतः, प्राकृतिक आपदाएं आती रहेंगी जब तक परमेश्वर एक नए स्वर्ग और पृथ्वी की रचना नहीं कर लेता (२ पतरस ३:१३; प्रकाशितवाक्य २१:१)। पौलुस कहता है, “क्योंकि हम जानते हैं, कि सारी सृष्टि अब तक मिलकर कराहती और पीड़ाओं में पड़ी तड़पती है” (रोमियो ८:२२)। फिर उसने कहा कि जो यीशु मसीह को जानते है, वह भी इस कराहने में जुड़ते है(v.२३)। २००४ की सुनामी जैसी घटनाओं के परिणामों के दौरान या महामारी के दौरान, हमने सृष्टि और परमेश्वर के लोगों की कराह को स्पष्ट रूप से देखा है। मसीहियों को सीखना ज़रूरी है की उन्हें किस प्रकार कराहना है। यदि हम ऐसा नहीं करते, तो जब उस स्थान पर समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जहाँ परमेश्वर ने हमें सेवा करने के लिए रखा है, तो हम परमेश्वर की इच्छा से दूर भागने और सुरक्षित स्थान पर जाने की परीक्षा में पड़ सकते है। कराहना हमें कठिन परिस्थितियों से निपटने में मदद करता है।

रोमियों ८ में जिस कराह के बारे में बात की गई है उसे बच्चे के जन्म के दर्द के रूप में वर्णित किया गया है (व.२२ )। जो महिलाएं कष्टदायी प्रसव पीड़ा का अनुभव करती हैं, वे इसे सहन करने में सक्षम होती हैं क्योंकि वे उस महिमित क्षण की प्रतीक्षा कर रही होती हैं जब वे बच्चे को जन्म देंगी ।
इसी तरह, हमारा कराहना हमें उस महिमित अंत की याद दिलाता है जो निश्चित रूप से आ रहा है (देखें २ कुरि० ५ :२ -४ )। यह हमारी सहायता करता है कि हम उन कठिन परिस्थितियों से दूर न भागे जिनमें परमेश्वर हमें डालता है। हम दुख सह सकते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि स्वर्ग में स्थायी, अनन्त छुटकारा निश्चित रूप से मिलेगा ।

हमें परमेश्वर और उसके लोगों की उपस्थिति में कराहना सीखना चाहिए और इसे भीतर बंद नहीं रखना चाहिए।

कराहना हमारे दर्दमय अनुभव के कारण हमारे भीतर उत्पन्न हुई कड़वाहट को हटा देता है। हमें परमेश्वर और उसके लोगों की उपस्थिति में कराहना सीखना चाहिए और उसे अंदर ही अंदर बंद नहीं करना चाहिए। जब हम ऐसा करते हैं, तो हम अपने दर्द को व्यक्त करते हैं और हम उस दबाव को छोड़ देते हैं जो हमारे दर्दनाक अनुभव पर बना है। तब कड़वाहट का बढ़ना मुश्किल हो जाता है। हमारा कराहना परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से या हमारे दोस्तों के माध्यम से हमें आराम भी देने देता है। जब हमें वास्तव में आराम मिलता है, तो हम कड़वे नहीं हो सकते, क्योंकि हम एक ऐसे प्रेम का अनुभव करते हैं जो उस क्रोध को दूर कर देता है जो हमारे हृदय की गहराइयों में कड़वाहट के रूप में था। इसलिए, जब हम व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से कराहते हैं, तो हम अपने कराहने के एक भाग में परमेश्वर से सवाल करते है कि ऐसा क्यों हुआ, भले ही हमारे भीतर की गहरायी में हमे इस बात का भरोसा है की परमेश्वर का उसके संसार के ऊपर नियंत्रण है।

ऐसा परमेश्वर जो कराहता है

परमेश्वर के बारे में सबसे अद्भुत बाइबिल शिक्षाओं में से एक यह है कि जब हम कराहते हैं, तो वह हमारे साथ कराहता है (रोमियों ८ :२६)। परमेश्वर जानता है कि हम किस परिस्थिति से गुजर रहे हैं, वह हमारे दर्द को महसूस करता है।

बाइबल कहती है कि जब इस्राएल कष्ट में था, तब परमेश्वर भी कष्ट में था (यशायाह ६३:९)। वास्तव में, वह उन लोगों के लिए विलाप और शोक करता है जो उसे स्वीकार भी नहीं करते हैं (यशायाह १६:११; यिर्मयाह ४८:३१)। यह उस सामान्य विचार से बिलकुल अलग है कि परमेश्वर दूर है और इसमें शामिल नहीं है।
परमेश्वर के कराहने से हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम पाते हैं कि जब यीशु (जो परमेश्वर हैं) पृथ्वी पर रहे , वह भी इस संसार की पीड़ा पर कराहए। वह यरूशलेम के हठ और उन पर आने वाले दण्ड के कारण रोया (लूका १९:४१-४५) ।

वह अपने मित्र लाजर की कब्र पर भी रोया था औरों के साथ जो वहां रो रहे थे (यूहन्ना ११:३३-३५)। इस तरह हम या निष्कर्ष निकाल सकते हैं परमेश्वर उनके साथ भी रो रहे हैं जो महामारी से हुए नुकसान या हानि के कारण रो रहे हैं।
परमेश्वर का रोना हमें मजबूत कारण देता है कि हम रोने के लिए अनिच्छुक न हो। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जब हमें इस बात का एहसास होता है कि परमेश्वर हमारे साथ कराहता है, तो हमारे साथ जो हुआ है उस पर उससे नाराज होना मुश्किल हो जाता है। यह इस बात को भी आसान कर देता है कि जब हम उलझन में हो तो हम परमेश्वर के पास उससे शांति पाने के लिए जाए।

क्या यह दण्ड की आज्ञा है ?

एक सवाल जो अक्सर पूछा जाता है कि क्या इस हालिया महामारी जैसी आपदाएं परमेश्वर का न्याय हैं। कुछ लोगों का यह भी दावा है कि यह पापी मनुष्यों के विरुद्ध परमेश्वर के कार्य है। पर ऐसे दावों पर एक गंभीर शंका तब उत्पन्न होती है जब हम यह देखते है की हज़ारो अद्भुत मसीही लोग भी संसार के अन्य लोगो के समान इससे प्रभावित हुए है।

जब यीशु इस पृथ्वी पर थे, उन्होंने भी उसी प्रकार दुखों का अनुभव किया जैसे अन्य लोग करते थे। यह मानवता के साथ उसकी पहचान का एक प्रमुख पहलू था। उसी तरह, हम में से जो यीशु का अनुसरण करते हैं, उन्हें भी संकट में पड़े लोगों के साथ दुख उठाने के लिए बुलाया गया है। आपदा से उबरने से हम सभी को ऐसा करने का अवसर मिलता है। एक मसीही होने के नाते यह हमारा सौभाग्य है कि हम उन लोगों में से हैं जिन्होंने एक भयानक आपदा का सामना किया है। हमें उनके दुख में उनके साथ एक होना है।

यीशु ने अपने दिनों में हुई द?