परिचय
अक्सर हम हमारी परिस्थितियों के कारण निंदा करने वालों से सहमत होने के लिए बहक सकतें है कि: “हर भले काम को भी दण्डित होना पड़ता है।” विचारात्मक क्षणों में, हम मानवीय अनुभव के हर पृष्ठ पर दिखाई देने वाली अनौचित्य, असमानता और अन्याय से कड़वाहट से भर जाते हैं।
न्याय कहाँ है? हम परमेश्वर पर भरोसा कैसे कर सकते हैं जब जीवन उन लोगों का पक्ष लेता है जिनके पास उसके लिए कोई सम्मान नहीं है?
अगले पृष्ठों में बिल क्राउडर हमें एक ऐसे व्यक्ति के संघर्ष के द्वारा बताते है, जो अन्याय के कारण अपने विश्वास से लगभग दूर हो गया था।
मार्ट डी हान
कठिन प्रश्न
यह उचित नहीं है!” बच्चा रोने लगा क्योंकि उसके माँ-बाप ने उससे कहा कि उसे वह खिलौना नहीं मिल सकता जो उसके दोस्त के पास था। “कभी-कभी जीवन उचित नहीं होता, दोस्त।”
हम अपने बच्चों को बताते हैं कि जीवन उचित नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि यह सच है।लेकिन भले ही हम इसे समझते हैं, और इस तथ्य के बावजूद कि हम जीवन की छोटी-छोटी असमानताओं को (एक आह और थोड़ी निराशा के साथ) स्वीकार भी करते हैं क्या हम वास्तव में यह मान लेते हैं कि अनौचित्य ठीक है? उस नशे में धुत ड्राइवर के बारे में क्या, जो मामूली खरोंचें लेकर चला जाता है जबकि वह व्यक्ति जिसकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी, कुछ दिन कोमा में रहने के बाद मर जाता है? या जब एक मां और पिता अपने बच्चे के हत्यारे की रिहाई पर अदालत कक्ष के बाहर रोते हैं – क्योंकि कानूनी जांच-पड़ताल में हुई एक चूक के कारण वह व्यक्ति मुक्त हो जाता है। एक आदमी को पता चलता है कि उसकी विधवा माँ का बैंक खाता खाली है – उसे एक “दान-संस्था” द्वारा धोखा दिया गया है और अब उसके पास जीवन निर्वाह करने के लिए कुछ पैसा नहीं बचा है।
त्रासदियाँ क्रोधपूर्ण प्रश्न उठाती हैं: जो लोग बुरे- बुरे काम करते हैं वे सफल और समृद्ध क्यों प्रतीत होते हैं? परमेश्वर कहाँ है? इन प्रश्नों का हम कैसे और कहाँ उत्तर पा सकते हैं?
उत्तर खोजने का एक स्थान भजन संहिता की पुस्तक में है। वे मानवीय भावनाओं की गहराई को समझते हैं और हमें मोहित कर लेते हैं क्योंकि वे उस क्रोध, भय और हताशा को शब्द देते हैं जो हम सभी अनुभव करते हैं।
भजनसंहिता लेखकों में से एक था आसाप नाम का एक व्यक्ति। उसने भजनसंहिता 73 तब लिखा जब जीवन ने उसे गहरे और दर्दनाक प्रश्न पूछने के लिए मजबूर कर दिया था। हालाँकि वह विवरण जिसके कारण उसे संकट हुआ वह अज्ञात है, परंतु आसाप ने जो देखा और जो सीखा उस पर अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दर्ज की।
जीवन और यहाँ तक कि परमेश्वर से भी छला हुआ महसूस करते हुए, आसाप ने गहरी निराशा को व्यक्त किया है जो अन्य कई लोगों ने भी अनुभव किया है लेकिन कुछ ही लोग स्वीकार करते हैं। मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? मैंने परमेश्वर पर भरोसा किया है। मैंने वफ़ादार बने रहने और अच्छे चुनाव करने की कोशिश की है। फिर भी मैं संकट से घिर गया हूँ जबकि दुष्ट लोग फलते-फूलते हैं। यह उचित नहीं है!
परमेश्वर अपने नियम क्यों नहीं लागू करता?
प्राचीन इस्राएल में, लोग उचित प्रतिफल के नियम पर विश्वास करते थे और उसके अनुसार जीते थे। वे न्याय और संतुलन की आशा रखते थे। भलाई करने वालों को उनके कामों के अनुसार पुरस्कृत किया जाएगा, जबकि अन्यायी और अनैतिक लोगों को दंडित किया जाएगा। यह केवल एक ज्ञानपूर्ण दर्शन या इच्छाजनक सोच नहीं थी; यह परमेश्वर द्वारा दिए गए नियम पर आधारित था।
∇ पढ़े: लैव्यव्यवस्था 25:3-5, 18-20; व्यवस्थाविवरण 28
नए नियम में इस पुराने नियम के सिद्धांत का एक प्रतिलेख है – “बोने और काटने का नियम”: “धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्टो में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता हैं, वही काटता है” (गलातियों 6:7-8)।
ये शब्द निराश और पीड़ित लोगों को सच्चाई और आशा प्रदान करते हैं (जैसा कि भजनसंहिता 34 और 37 में है)। जहां भी हम इसे पाते हैं, यह सिद्धांत उस ढांचे का हिस्सा था जिसके माध्यम से एक इस्राएली जीवन को देखता था।
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∇ चौथी शताब्दी में टारसस के बिशप डियोडोर ने भजन 37 के बारे में कहा, “मनुष्य होने के कारण हम सभी अमीरों की समृद्धि से परेशान होते हैं, खासकर जब वे बेईमान होते हैं।” लेकिन उन्होंने चेतावनी दी कि, “हालांकि वे कुछ समय के लिए फलते-फूलते है, ऐसे लोगों का अंत जल्दी होता है।”
ऐसा मानना कि भलाई को पुरस्कृत किया जाता है और बुरे को दंडित किया जाता है, उस समस्या को उजागर करता है जो भजनसंहिता 73 की पृष्ठभूमि बनाती है: बुरे लोगों को लाभ क्यों होता है जबकि अच्छे लोग संघर्ष करते हैं और कठिनाई का सामना करते हैं?
यह भजनसंहिता किसी सैद्धांतिक समस्या का अलग धार्मिक विश्लेषण नहीं है। आसाप एक व्यक्तिगत संकट से जूझ रहा था, जिसने परमेश्वर में उसके विश्वास को खतरे में डाल दिया था। उसके शब्दों से उसके हृदय की गहराईयों में प्रश्नों द्वारा उद्वेलित भावनाओं की तीव्रता का पता चलता है।
अपने संघर्ष में, आसाप हमारे लिए बोल सकता है। हमारा जीवन उसके जीवन का दर्पण हो सकता हैं। वह परमेश्वर की भलाई और न्याय के सिद्धांत में विश्वास करता था, लेकिन उसका अनुभव उन बातों से मेल नहीं खाता जो उसने सोचा था कि वह जानता था।
उत्तर: यदि आसाप को परमेश्वर में विश्वास जारी रखना था, तो उसको उत्तर खोजने होंगे।
रियरव्यू मिरर/पार्श्वदर्शी दर्पण
मेरे पसंदीदा उद्धरणों में से एक है, “जीवन को आगे की ओर जीना चाहिए-दुर्भाग्यवश इसे केवल पीछे की ओर से ही समझा जा सकता है।” दूसरे शब्दों में, हमें जीवन की घटनाओं के बारे में स्पष्टता से तभी समझ पाते है जब हम उन घटनाओं को रियरव्यू मिरर/ पार्श्वदर्शी दर्पण(पीछे कि ओर देखने )के माध्यम से पीछे कि ओर देखते हैं। रियरव्यू” के पुनर्दृष्टि दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण बात यह है कि वह हमारे (पिछले) अनुभवों को और अधिक सार्थक संदर्भ देता है| चिंतन, परीक्षण और मूल्यांकन अक्सर स्पष्ट करते हैं कि उस समय क्या समझना मुश्किल था। यह पीछे की ओर देखने से ही आसाप को अपनी परिस्थितियों को समझने में मदद मिली। आख़िरकार उसके जीवन में ऐसा समय आया जब वह संदेह, पीड़ा और निराशा को दोबारा अलग दृष्टिकोण से देख पाया और परमेश्वर की भलाई और न्यायसंगति के बारे में विचार कर पाया। और अंत में, पुनरावलोकन करने पर तस्वीर अधिक स्पष्ट और समझने योग्य हो जाती है।
∇ आसाप का संघर्ष यह है कि “शुद्ध हृदय” आशीषित नहीं होता है। आसाप और उसके विश्वास के बीच हो रहे अंतर्द्वंद्व के बावजूद भी कुछ लोग इस वचन को उसके विश्वास की घोषणा के रूप में देखते हैं। जीवन की वास्तविकताओं ने उसकी गहरे दृढ़ विश्वास पर युद्ध की घोषणा कर दी थी।अन्य लोग पद 1 को आसाप के बदलते विचारों की शुरुआत के रूप में देखते हैं। वे उसे विश्वास से शुरुआत करते हुए, फिर निराशा और लगभग परित्याग के दौर में पहुँचते हुए देखते हैं।
भजनसंहिता 73 के आरंभिक शब्दों पर ध्यान दें: “सचमुच इस्राएल के लिये अर्थात शुद्ध मन वालों के लिये परमेश्वर भला है!” (पद- 1)
आसाप ने अपने अनुभव का वर्णन किया जैसे उसने इसे रियरव्यू मिरर/ पार्श्वदर्शी दर्पण (पीछे की ओर) में देखा था- एक ऐसे सुविधाजनक स्थान से जिसने उसे अपनी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को अधिक स्पष्ट रूप से देखने की अनुमति दी।
आसाप का हृदय युद्ध का मैदान बन गया था। उसके हृदय में परमेश्वर की विश्वसनीयता को लेकर युद्ध छिड़ गया। जैसे वह अपना अनुभव सुनाता है, वह अपनी निराशा प्रकट करता है कि: “मेरे डग तो उखड़ना चाहते थे,मेरे डग फिसलने ही पर थे” (पद-2)।
संकट की घड़ी में उसकी शिकायतें उचित, यहाँ तक कि न्यायोचित भी लग रही थीं। लेकिन अब वह उन शिकायतों को देख सकता था कि वे वास्तव में क्या थी—परमेश्वर को अस्वीकार करने का एक खतरनाक प्रलोभन। उसने ईमानदारी से अपने दिमाग पर हमला करने वाले विचारों का वर्णन किया: “क्योंकि जब मैं दुष्टों का कुशल देखता था,तब उन घमंडियो के विषय डाह करता था” (पद 3)।
आसाप की अपनी भावनाओं के स्वीकारे जाने को हम महसूस कर सकते हैं लेकिन शायद ही कभी स्वीकार करते हैं; उसके दो टूक शब्द सभी जाने पहचाने विचार मन को लुभाते हैं । उसका आत्म-प्रकटीकरण हमें स्वयं के प्रति और परमेश्वर के प्रति ईमानदार होने के लिए प्रोत्साहित करता है। हम भी समृद्धि से ईर्ष्या करते हैं और उससे घृणा करते हैं, खासकर जब ऐसा लगता है कि यह उन लोगों को मिलती है जो बुरे काम करते हैं।
उन लोगों का वर्णन करते हुए जिनका सभी गलत कारणों से पलड़ा भारी लगता था, उसने लिखा:
क्योंकि उनकी म्रत्यु में वेदनाएं नहीं होती,परन्तु उनका बल अटूट रहता है।
उन को दूसरे मनुष्यों की नाई कष्ट नहीं होता; और मनुष्यों के समान
उन पर विपत्ति नहीं पड़ती।
इस कारण अहंकार उनके गले का हार बना है; उनका ओढ़ना उपद्रव है।
उनकी आँखे चर्बी से झलकती हैं,उनके मन की भावनाएं उमड़ती है।
वे ठट्टा मारते हैं, और दुष्टता से अंधेर की बात बोलते है; ।
वे डींग मारते हैं वे मानों स्वर्ग में बैठे हुए बोलते है, और वे पृथ्वी में बोलते फिरते हैं।
फिर वे कहते है, “ईश्वर कैसे जानता है? क्या परमप्रधान को कुछ ज्ञान है?” (पद- 4-9, 11)।
प्रत्येक वाक्यांश और प्रत्येक हताशा, आसाप उन सभी ऐशो आराम पर विचार करता है जो उसके आस-पास के लोगों के जीवन की विशेषता प्रतीत होती है।
ऐसा लगता है कि वे ऐसा कष्ट रहित जीवन जीते हैं (पद -4)। वे पूर्ण और संतुष्ट होकर मरते हैं, हर कदम पर जीवन का भरपूर आनंद लेते हैं। “उनका बल अटूट होता है,” उस युग में महान समृद्धि का संकेत देता है जब अधिकांश लोग जीवित रहने के लिए संघर्ष करते थे। हर व्यंजन का भोग उनका दैनिक आधार पर था, और उनकी जीवनशैली आराम करने और बेहतरीन चीजों का आनंद लेने के साधन और अवसर को प्रतिबिंबित करती थी।
वे दूसरों की तरह पीड़ित नहीं हैं (पद- 5)। जीवन की कठिनाइयों, संघर्षों और परिश्रम से मुक्त लगते हैं । वे बीमारी और रोगों से प्रतिरक्षित लगते हैं। पैसा और सुरक्षा उनके लिए बड़ी चिंता नहीं है। जो लोग अपने गलत कामों के बावजूद भी समृद्ध होते हैं, मुसीबतें उन्हें छू भी नहीं पातीं।
उनका अभिमान और हिंसा पुरस्कृत प्रतीत होती है (पद-6)। आसाप के विश्वास ने उसे यह विश्वास करना सिखाया था कि जो लोग परमेश्वर को अस्वीकार करते हैं उन्हें कष्ट सहना पड़ेगा। परंतु जब उसने जीवन को ध्यान से देखा और समझा, उसे ऐसा लगा मानो जिन लोगों ने गर्व और दमनकारी होने का साहस किया,उन्हें सम्मानित और पुरस्कृत किया गया। उसे ऐसा लग रह था कि जिन लोगों ने अपना जीवन परमेश्वर की आराधना में समर्पित किया है और जिन चीज़ों के वे अभिलाषी थे और उनकी अपेक्षा कर रहे थे वे सभी चीज़े दुष्कर्मियों को प्राप्त थी।
उनके पास अकल्पनीय रूप से बहुतायत है (पद-7) आसाप ने उनके धन-दौलत की बाहरी चमक को देखा। “उनकी आँखे चर्बी से झलकती हैं।” ऐसा प्रतीत होता कि जैसे जीवन की सारी विलासिताएँ सब उन्ही के लिए ही है, आराम, सुरक्षा, सुविधा और लोग सभी चीज़े बस उन्ही की इच्छा को पूरी करने के लिये हैं।
उनकी बात-चीत उपहास, गर्व और अहंकार से भरी है (पद- 8-9)। उनके उपहास का निशाना वे लोग थे जो चरित्र को महत्व देते थे। परन्तु जिस बात ने आसाप को सबसे अधिक व्याकुल किया वह था इन समृद्ध लोगों का परमेश्वर के प्रति उनका रवैया। उन्होंने अपने हर काम में परमेश्वर का उपहास किया।
उनकी समृद्धि ने उन्हें ठट्टे में यह पूछने के लिए प्रेरित किया कि: “ईश्वर कैसे जानता है? और क्या परमप्रधान को कुछ ज्ञान है?” (पद-11) बाइबल कमेन्टेटर (टिप्पणीकार) एलन रॉस कहते हैं, “वे कल के बारे में लापरवाह और बेपरवाह लगते हैं। उनके लिए जीवन वर्तमान में ही है, और वर्तमान सर्वदा के लिए प्रतीत सा होता है।” वे जीवन की सामान्य पीड़ाओं से सुरक्षित महसूस करते थे (पद-4-6), इसलिए उन्होंने यह मान लिया था कि वे किसी भी ईश्वरीय प्रतिक्रिया के प्रति भी अभेद्य थे।
जब आसाप ने अधर्मी, स्वार्थी लोगों के धन और सुख को देखा, तो वह एक हतोत्साहित करने वाले निष्कर्ष पर पहुँचा: अपने सभी गलत कामों के बावजूद, जो लोग केवल अपने लिए जीते हैं वे अभी भी समृद्ध हैं।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आसाप निराश था! बुरे लोग फले-फूले, वे स्पष्ट रूप से जीवन की सभी समस्याओं से प्रतिरक्षित थे। उन्होंने परमेश्वर का उपहास किया और ऐसा प्रतीत हुआ कि वे ऐसा करके बच निकले है।
पद 3 में असमानता और अन्याय ने आसाप के अंगीकार को प्रेरित किया: “क्योंकि जब दुष्टों का कुशल देखता था,तब उन घमंडियों के विषय डाह करता था ।” ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करते हुए, हम भी चीख कर कहना चाहते हैं, “यह बिल्कुल भी उचित नहीं है!”
लेकिन वह तो केवल शुरूआत थी। हालाँकि अपनी हताशा को प्रकट करना स्वाभाविक और लाभदायक लग रहा था, लेकिन ऐसा करना उसे एक अंधेरे और परेशान करने वाले रास्ते पर ले गया।
क्याआपने कभी सोचा है कि क्या पुरस्कार पीड़ा के लायक है? आसाप ने भजनसंहिता 73 में इसी तरह की चिंता व्यक्त की: क्या जीवन इसके लायक है? क्या सच में ऐसा होता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैंने परमेश्वर के लिए जीने की कोशिश की है? वेदनापूर्ण प्रश्न पद 13 में स्पष्ट रूप से पढ़ा जाता है: “निश्चय,मैंने ह्रदय को व्यर्थ ही शुद्ध किया और अपने हाथ निर्दोषता में धोया है ।”
आसाप की निराशा स्पष्ट है, उसकी पीड़ा सभोपदेशक की पुस्तक में सुलैमान की निराशा का सार दर्शाती है। जब वह कहता है, “सब कुछ व्यर्थ है,” सुलैमान जीवन के विषय पर चिंतन कर रहा था (1:2)। आसाप ने व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा और विश्वासयोग्यता के लिए प्रयास किया। लेकिन अब, अपनी निराशा में, वह सोच रहा था कि क्या उसके प्रयास व्यर्थ थे। पद 13 के शब्दों के पीछे अप्रसन्नतापूर्ण क्रोध का जबरदस्त भार छिपा है। जब ऐसा लगता है कि परमेश्वर नियंत्रण में नहीं है, तो हमारे संदेह हमें हार मानने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
∇ Iसभोपदेशक की पुस्तक में, सुलैमान राजा ने जीवन के अर्थ खोजने के अपने प्रयासों की निरर्थकता का वर्णन किया। “सूरज के नीचे” से देखना ( यह एक वाक्यांश जो इस पुस्तक में 25 से अधिक बार इस्तेमाल किया गया है), यह जीवन को सांसारिक दृष्टिकोण से मानता है। अपनी निराशा के बावजूद, सुलैमान का अंतिम निष्कर्ष था, “परमेश्वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर” (सभोपदेशक 12:13)।
आसाप इतना निराश हो गया कि उसे लगा कि सत्यनिष्ठा और नैतिकता इसके लायक ही नहीं हैं। अपनी आध्यात्मिक प्रतिबद्धता के प्रतिफल में वह कहता है: “क्योंकि मैं दिन भर मार खाता आया हूँ और प्रति भोर को मेरी ताड़ना होती आई है” (पद- 14)।
आसाप का भय
द फोर फेदर्स 1800 के दशक के अंत में ब्रिटिश सेना में एक नौजवान हैरी फेवरशैम की कहानी बताती है। उस समय के दौरान, जब ब्रिटिश साम्राज्य हर बसे हुए महाद्वीप तक राज करता था, तब कोई भी व्यक्ति अपने परिवार के लिए सेना में सेवा करने से बड़ा कोई सम्मान नहीं ला सकता था। हैरी ने इस आह्वान का उत्तर दिया और अपनी रेजिमेंट में सम्मान अर्जित किया।
फिर वह दिन आया जब उनकी यूनिट को खबर मिली कि उन्हें सूडान में विद्रोह को दबाने के लिए तैनात किया जा रहा है। हैरी घबरा गया, युद्ध के विचार और युद्ध के आतंक ने उसे भय से स्तब्ध कर दिया।
इसलिए हैरी ने अपना आयुक्त-पद छोड़ दिया। प्रभाव व्यापक था, उसके तीन साथी अधिकारियों ने उसका बहिष्कार कर दिया और, उनमें से प्रत्येक ने उसे एक सफेद पंख भेजा – जो उसकी कायरता का प्रतीक था। हैरी की मंगेतर, जो उसे वीर योद्धा बनाना चाहती थी, उसने भी उसे ठुकरा दिया और उसे एक पंख भी भेजा। और उसके पिता, जो एक सैनिक थे, वे भी उससे अलग हो गए और यह घोषणा कर दी कि वह हैरी को जानते भी नहीं थे। एक अकेले, भय से भरे विकल्प का हैरी के जीवन के सभी रिश्तों पर एक शक्तिशाली, विनाशकारी प्रभाव पड़ा।
∇ ई. डब्ल्यू. मेसन के 1902 के उपन्यास में, फेवरशैम अंततः अपने दोस्तों के लिये साहसपूर्ण कार्य करके वे अपने आत्म सम्मान और रिशतों को बचा लेता है इस प्रक्रम के दौरान वह अपनी मंगेतर का दिल वापस जीत लेता है।
आसाप दाऊद का मुख्य संगीतकार, आध्यात्मिक प्रभाव वाला व्यक्ति, गीतकार और भविष्यवक्ता था (1 इतिहास 16:5; 25:2; 2 इतिहास 29:30)। ऐसे पद में विशेषाधिकार और प्रभाव दोनों शामिल थे। वह इस्राएल में एक आध्यात्मिक अगुवा था और उस ज़िम्मेदारी के भार और कठिनाई को महसूस करता था। तो भी उसने खुद को परमेश्वर की भलाई पर संदेह करते हुए पाया।
आसाप के प्रकाशन/प्रकटीकरण पर उसकी स्वयं की प्रतिक्रिया पर ध्यान दें: “यदि मैंने कहा होता कि मैं ऐसा ही कहूँगा,तो देख मैं तेरे लड़कों की संतान के साथ क्रूरता का व्यवहार करता” (पद 15)। वह परमेश्वर द्वारा जीवन को संभालने/ जीने के तरीके पर अपनी अस्वीकृति ऊँची आवाज में जताना चाहता था (“इस रीति से” पद-13-14 को संदर्भित करता है), लेकिन वह कुछ देर रुका। अविश्वास और निराशा की घाटी की कगार पर खड़ा था, कोई चीज़ उसे धीरे-धीरे वापस खींचने लगी। लेकिन वह क्या चीज़ थी?
आसाप की जिम्मेदारी की भावना
आसाप जीवन के अन्याय और अनौचित्य पर अपना क्रोध और हताशा प्रकट करना चाहता था – उस परमेश्वर पर चिल्लाना चाहता था जिसने यह सब होने की अनुमति दी थी। जो कुछ आसाप के ह्रदय में था उसके अंतर्गत कुछ भी कदम उठाने से उसने अपने आप को रोका क्योंकि उसने निराशा और क्षति को महसूस किया जो परमेश्वर के उन लोगों में हो सकता था जो उसके उदाहरण को देखते थे। वाक्यांश “तेरे लड़कों की संतान के साथ क्रूरता का व्यवहार करता” (पद 15) से उसका यही तात्पर्य था।
वह जानता था कि उसके प्रश्न और विशेषकर उन पर उसकी प्रतिक्रिया के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। आसाप की यात्रा में यह एक महत्वपूर्ण बिंदु था। यहां ज्ञान और विश्वास ने उसके पीड़ादायक सवालों को किनारे कर दिया, जिससे उसे एक अलग दृष्टिकोण मिला। अपने संघर्ष के बीच में भी, आसाप ने अपनी ईर्ष्या, क्रोध और संदेह के कारण दूसरों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार करके अपनी प्रतिक्रिया को नियंत्रण में रखा।
आसाप की मूक पीड़ा
आसाप अपने संदेह और अपने विश्वास के बीच में सामंजस्य स्थापित नहीं कर सका, लेकिन वह अपने मन की बात बताकर दूसरों को खतरे में डालने को तैयार नहीं था। इसलिए उसने दूसरा रास्ता चुना: “जब मैं सोचने लगा कि इसे मैं कैसे समझूँ,तो यह मेरी दृष्टि में अति कठिन समस्या थी” (पद-16)।
आसाप ने चुपचाप कष्ट सहना चुना। उसने जीवन के अनौचित्य को देखा जिसके कारण उसे अपने ही कमज़ोर विश्वास के साथ संघर्ष करना पड़ा और उसने सोचा होगा: क्या मेरे प्रश्नों के उत्तर हैं? क्या मेरी पीड़ा के लिये राहत है? क्या संसार में न्याय का राज होगा? क्या कभी यह सब बातें समझ में आ पाएंगी?
ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर हम नहीं दे सकते। कभी-कभी हमें वे समाधान नहीं मिलते जिनकी हमें आवश्यकता होती है जब तक कि हम स्वयं को परमेश्वर की उपस्थिति में नहीं पाते। आसाप संघर्ष करता रहा; “जब तक मैंने ईश्वर के पवित्र स्थान में जाकर उन लोगों के परिणाम को न सोचा” (पद-17)।
पवित्र स्थान
पवित्र स्थान आध्यात्मिक सुरक्षा, आराम और नवीनीकरण/पुनारम्भ के लिए अलग रखा गया स्थान है। हम सभी को एक ऐसे स्थान की जरूरत है – एक छिपने का स्थान जहां हमारे दिल और दिमाग आज के संघर्षों और कल की चुनौतियों के लिए बहाल और मजबूत हों।
∇ पवित्र स्थान शब्द पूरे पुराने नियम में दिखाई देता है। यह उस निवासस्थान की बात करता है जो यरूशलेम में मंदिर के निर्माण से पहले इस्राएल के लिए आराधना का स्थान था (निर्गमन 25:8; 36:1, 6)। अन्य समय में यह मंदिर को ही संदर्भित करता है (1 राजा 6)।
पुराने नियम में पवित्र स्थान शब्द एक स्थान से अधिक एक विचार को संदर्भित करता है – परमेश्वर की उपस्थिति का विचार (देखें यशायाह 8:14)। यह वही है जिसकी दाऊद ने भजनसंहिता 23 में इच्छा की थी जब उसने “सुखदाई जल” (पद 2) की आशा की थी जहाँ यहोवा उसका चरवाहा था। जो उसके जी में जी ले आता है,यह वही है जो मसीह ने स्वयं खोजा था जब वे भीड़, काम और शिष्यों से दूर जा कर अपने पिता के साथ समय बिताने के लिए अकेले पहाड़ पर चले जाते थे। आसाप ने पाया कि पवित्र स्थान वह स्थान है जहाँ उसे उत्तर और नवीनीकरण/जीर्णोद्धार मिलेगा।
गया ।
आसाप परमेश्वर के पवित्रस्थान में गया और वहाँ उसे नया दृष्टिकोण और समझ मिली। जब तक आसाप ने पवित्रस्थान में प्रवेश नहीं किया था, वह वर्तमान परिस्थितियों की अनौचित्य से अभिभूत हो गया था। लेकिन परमेश्वर की उपस्थिति में सब कुछ बदल गया। अपनी परिस्थितियों और धारणाओं के बजाय परमेश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से चीजें स्पष्ट हो गयी। पवित्र स्थान में, आसाप ने जीवन के अधर्मों को एक अलग दृष्टिकोण से देखा – वह दिन जब न्याय प्रबल होगा।
टिंडेल ओल्ड टेस्टामेंट कमेंट्रीज़ में डेरेक किडनर के अनुसार, समाधान तब शुरू हुआ जब आसाप ने परमेश्वर को “काल्पनिक या निवेश करने की वस्तु के रूप में नहीं, बल्कि आराधना के योग्य” देखा। बाइबल कमेंटटेटर (टिप्पणीकार) रॉय क्लेमेंट्स कहते हैं: “आराधना परमेश्वर को हमारी दृष्टि के केंद्र में रखती है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल तभी जब परमेश्वर हमारी दृष्टि के केंद्र में होता है तभी हम चीज़ों को वैसे देखते हैं जैसे वे वास्तव में होती हैं।”
जब तक कि मैं ईश्वर के पवित्र स्थान में जाकर उन लोगों के परिणाम को हे प्रभु न सोचा ।
निश्चय तू उन्हें फिसलने वाले स्थानों में रखता है; और गिराकर सत्यानाश कर देता है ।
अहा,वे क्षण भर में कैसे उजड़ गए है! वे मिट गए, वे घबराते घबराते नाश हो गए हैं ।
जैसे जागने हारा स्वप्न को तुच्छ जानता है,वैसे ही हे प्रभु जब तू उठेगा,तब उनको छाया सा समझ कर तुच्छ जानेगा । (पद-17-20)
कई महत्वपूर्ण अध्याय में से सबसे पहले, आसाप का ध्यान उन लोगों की ओर गया जिनसे वह ईर्ष्या करता था। उसने उनकी समृद्धि देखी और इतना ईर्ष्यालु हो गया उसने लगभग अपना दल ही बदल लिया, परमेश्वर को त्याग दिया और दुष्टों के साथ शामिल हो गया (पद- 2-3)। लेकिन वह तब था जब उसने एक क्षैतिज (समस्तरीय) दृष्टिकोण रखा था। परन्तु पवित्र स्थान में, आसाप का दृष्टिकोण शीर्ष का (सीधा) हो गया। वह आख़िरकार उसकी सराहना कर सका जो परमेश्वर देखता और समझता है वे लोग जो परमेश्वर की उपेक्षा करने के बावजूद भी समृद्ध हुए हैं- वे लोग जिनसे वह ईर्ष्या करता था उनके भविष्य में क्या रखा है।
सुरक्षा का अभाव (v. 18)। संसार के दृष्टिकोण से, और अपनी नज़र में, ये व्यक्ति संकट की पहुँच से बाहर लग रहे थे। लेकिन परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वे “फिसलन भरी जगहों” में थे और विनाश की ओर बढ़ रहे थे। जब आसाप ने उन्हें ऐसे देखा जैसे वे अपने न्याय के दिन होंगे, तो उस ने उन से डाह करना बन्द कर दिया।
अपेक्षा का अभाव (पद- 19)। ये समृद्ध लेकिन दुष्ट लोग न केवल न्याय के दिन की ओर बढ़ रहे थे, बल्कि उन्होंने इसे आते हुए भी नहीं देखा। नूह के समय के लोगों की तरह, जिन्होंने वर्षों की चेतावनी के बावजूद परमेश्वर का विरोध किया, जब न्याय का दिन आएगा, तो उनके लिए इसके बारे में कुछ भी करने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी।
आशा का अभाव (पद- 20)। जब परमेश्वर उनके विरुद्ध कदम उठाएगा, तो उसका निर्णय बिना किसी निवेदन/अपील के होगा। परमेश्वर के समय और बुद्धि में, प्रतिशोध का सिद्धांत, जिस पर आसाप ने विश्वास किया था, वह प्रबल होगा। परन्तु परमेश्वर ही समय और स्थान निर्धारित करेगा।
आसाप ने शेष इस्राएल के साथ, उचित प्रतिफल के सिद्धांत को समझा। आसाप की उलझन परमेश्वर के धैर्य और दया को उसके न्याय की निश्चित समय से अलग करने की कोशिश से ही उत्पन्न हुई थी। केवल पवित्र स्थान में आसाप ने स्पष्ट रूप से देखा कि लेखा देने का दिन उन लोगों के लिए परमेश्वर के वादों की पूर्ति के समान ही अटल है जो उस पर भरोसा करते हैं। लेकिन समय परमेश्वर का होगा; वही जवाबदेही की घड़ी और कैलेंडर तय करता है।
आसाप के नये दृष्टिकोण ने उसका मनोभाव बदल दिया था। लेकिन जो फैसला सामने आया उसके लिए निश्चित रूप से जश्न मनाने का कोई कारण नहीं था। आने वाला निर्णय एक चेतावनी थी। उसका गुस्सा ठंडा पड़ गया और वह एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आ गया। उन लोगों पर ऊँगली उठाने के बजाये जिन्हें देख कर ऐसा लग रहा था कि वे परमेश्वर के न्याय से बच रहे थे अब, आसाप ने स्वयं पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
बुद्धि का आरम्भ
मेरा मन तो कडुवा हो गया था,
मेरा अंतःकरण छिद गया था,
मैं तो पशु सरीखा था,
और समझता न था,
मैं तेरे संग रह कर भी,
पशु बन गया था (पद- 21-22)।
आराधना के स्थान में, आसाप को पता चला कि उसकी असली शिकायत विद्रोहियों या यहाँ तक कि परमेश्वर से भी नहीं थी। वह उस व्यक्ति पर जो एक दिन सब कुछ सही कर देगा उस पर ध्यान देने के बजाय जीवन के अनौचित्य पर ध्यान केंद्रित कर रहा था ।
विश्वास के इस तरह के टकराव को अपने ऊपर हावी होने की अनुमति देकर, आसाप उस आराम और शांति को खो रहा था जो विश्वास लाने का इरादा रखता है। पद 21-22 में, भजनकार की पूर्णरूप से आध्यात्मिक वापसी है। क्रमानुसार प्रगति पर ध्यान दें:आसाप ने देखा कि उसने अपने साथ क्या किया है, और वह चिंतित हो गया (पद 2)। उसे एहसास हुआ कि उसने विश्वासी साथियों के साथ क्या किया, और वह ख़ामोश/चुप हो गया (पद 15)। आख़िरकार, आसाप ने स्पष्ट रूप से उनके रवैये और कार्यों को परमेश्वर के प्रति अपराध के रूप में देखा जो पूरी तरह से न्यायपूर्ण है (पद- 21-22)।
आसाप अब अपने क्रोध या नाराज़गी को न्याय संगत या धार्मिकता से जोड़कर नहीं देख रहा था । उसने कहा, “मेरा मन तो कड़वा हो गया था” आसाप की कड़वाहट परमेश्वर के प्रति थी।
“मेरा अंतःकरण छिद गया था आसाप ने अब उस पीड़ा को सहन किया जो अपने आपको दिए गए घावों से उत्पन्न होता है। कभी-कभी हम अपने साथ जो करते हैं वह किसी और के द्वारा किये जाने से कहीं अधिक बुरा होता है। हम ऐसा तब करते है जब हम परमेश्वर की भलाई, चरित्र और निष्ठा पर सवाल उठाते हैं।
“मैं तो पशु सरीखा था, और कुछ समझता न था।” अय्यूब की तरह, जब आसाप का दृष्टिकोण बदल गया, तो उसे एहसास हुआ कि उसकी बुद्धि परमेश्वर की तुलना में फीकी है। अय्यूब के शब्द उसके भी हो सकते थे:
“मैं जो नहीं समझता था वही कहा, अर्थात जो बातें मेरे लिये अधिक कठिन और मेरी समझ से बाहर थी जिन को मैं जानता भी नहीं था। मैं निवेदन करता हूँ सुन, मैं कुछ कहूँगा,मैं तुझसे प्रश्न करता हूँ,तू मुझे बता। मैंने कानों से तेरा समाचार सुना था,परन्तु अब मेरी आँखे तुझे देखती है;इसलिए मुझे अपने ऊपर घृणा आती है और मैं धूलि और राख में पश्चाताप करता हूँ।“ (अय्यूब 42:3-6)
हमारे लिए परमेश्वर की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाना या उसकी आलोचना करना, या परमेश्वर के कार्यों का मूल्यांकन करने का प्रयास करना, एक ऐसे कार्य का प्रयास करना है जिसके लिए हम बुरी तरह से अयोग्य हैं। उसकी बुद्धि परिपूर्ण और शाश्वत दोनों है, और वह कोई गलती नहीं करता। परमेश्वर कहते हैं, “क्योंकि मेरे विचार तुम्हारे विचार नहीं हैं, और न तुम्हारी गति और मेरी गति एक सी हैं” (यशायाह 55:8)।
जब हम किसी स्थिति से निपटने के लिए परमेश्वर पर सवाल उठाने के लिए प्रलोभित होते हैं, तो स्वयं को याद दिलाने के लिए यह लाभदायक है कि वर्तमान में परमेश्वर के काम पर भरोसा किया जा सकता है क्योंकि वह एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जिसे भविष्य का पूर्ण ज्ञान है।
“मैं तेरे संग रह कर भी,पशु बन गया था” आसाप ने पशु शब्द का प्रयोग रूपकालंकार की द्रष्टि से किया, लेकिन उसके शब्द प्रतिबिंबित करते हैं जो भविष्यवक्ता दानिय्येल ने बेबीलोन के महान राजा नबूकदनेस्सर के बारे में लिखा था।
जब नबूकदनेस्सर ने गर्व से अपनी बुद्धि और महिमा का जश्न मनाया, तो परमेश्वर ने राजा को एक जंगली जानवर का दिमाग और व्यवहार दे दिया। वह महल से बाहर निकाले जाने पर सात वर्षों तक घास चरता रहा। जब परमेश्वर ने कृपापूर्वक राजा की बुद्धि बहाल की, तब नबूकदनेस्सर ने यह अति गंभीर घोषणा की:
उन दिनों के बीतने पर,मुझ नबूकदनेस्सर ने अपनी आँखे स्वर्ग की ओर उठाई,और मेरी बुद्धि फिर ज्यों की त्यों हो गई;तब मैंने परमप्रधान को धन्य कहा,और जो सदा जीवित है उसकी स्तुति और महिमा यह कह कर करने लगा: उसकी प्रभुता सदा की है और उसका राज्य पीढी से पीढ़ी तक बना रहने वाला है पृथ्वी के सब रहने वालों के बीच अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है; और कोई उसको रोक कर उस से नहीं कह सकता है, तूने यह क्या किया? (दानिय्येल 4:34-35) ।
हम परमेश्वर के सभी तरीकों को नहीं समझ सकते। बेबीलोन के राजा की तरह, आसाप ने भी यह समझ लिया कि वे परमेश्वर को अन्यायी ठहराने के लिए अयोग्य है।
∇ “हे यहोवा, देवताओं में तेरे तुल्य कौन है? तू तो पवित्रता के कारण महाप्रतापी, और अपनी स्तुति करने वालों के भय के योग्य,और आश्चर्य कर्म का करता है” (निर्गमन 15:11)।
परमेश्वर की सर्व-पर्याप्तता/सक्षमता
तौभी मैं निरन्तर तेरे संग ही था;
तूने मेरे दाहिने हाथ को पकड़ रखा।
तू सम्मति देता हुआ मेरी अगुवाई करेगा,
और तब मेरी महिमा करके मुझ को अपने पास रखेगा (पद 23-24)।
पवित्रस्थान में प्रवेश करने से आसाप को परमेश्वर के प्रति एक उच्च दृष्टिकोण प्राप्त करने की अवसर मिला, और उसके हृदय से कृतज्ञता और आत्मविश्वास उमड़ पड़ा। अत्यधिक उत्साह के साथ उसने घोषणा की कि परमेश्वर सदैव हमारे साथ हैं। जब आसाप ने अपने बुरे दिनों पर विचार किया, तो उसने देखा कि वह कभी अकेला नहीं था। इस ज्ञान के साथ कि परमेश्वर उसे न तो कभी छोड़ेंगा और न ही कभी त्यागेगा, आसाप एक नये साहस के साथ पवित्रस्थान से बाहर निकला।
यह वही आश्वासन है जो मसीह ने बाद में अपने शिष्यों को दिया था जब उन्होंने कहा था, “मैं जगत के अंत तक सदा तुम्हारे संग हूँ ” (मत्ती 28:20)।
आसाप परमेश्वर की उपस्थिति पर निर्भर कर सकता था, और वह इस विश्वास पर भी निर्भर कर सकता था कि परमेश्वर उसे प्रबल/दृढ़ करेगा। जब जीवन बोझिल लगने लगता है तो वह एक सांत्वनादायक सत्य है। यह वही विश्वास है जो प्रेरित पौलुस ने दिया था। जब उसने लिखा, “यह नहीं,कि हम अपने आप से इस योग्य हैं,कि अपनी ओर से किसी बात का विचार कर सकें;पर हमारी योग्यता परमेश्वर की ओर से है।” (2 कुरिन्थियों 3:5)
आसाप को न केवल परमेश्वर की उपस्थिति और सामर्थ्य का आश्वासन प्राप्त था, बल्कि वह परमेश्वर की आत्मा और परमेश्वर के वचन पर भी भरोसा कर सकता था जो उसका अंत तक मार्गदर्शन करेगा। “तू सम्मति देता हुआ मेरी अगुवाई करेगा,और तब मेरी महिमा करके मुझ को अपने पास रखेगा”(भजन संहिता 73:24)। शायद आसाप की सबसे अद्भुत खोज यह थी कि परमेश्वर की उपस्थिति, शक्ति और बुद्धि कभी समाप्त नहीं होगी। वह यह जानता था,जब जीवन यात्रा पूरी हो जाएगी, तो परमेश्वर सदा के लिये उसके साथ रहने का अपना वादा पूरा करेगा।
क्या यह उस परमेश्वर की तरह लगता है जो हमें भूल गया है और त्याग दिया है? बिलकुल नहीं! वह ऐसा परमेश्वर है जो न तो कभी हमें छोड़ेगा और न ही कभी त्यागेगा। (व्यवस्थाविवरण 31:6, 8; इब्रानियों 13:5)।
भजन 73 के अंतिम पदों में, आसाप ने बताया कि उसने अपने संघर्ष से क्या सीखा।
1परमेश्वर जीवन में किसी भी
अन्य चीज़ से अधिक महत्वपूर्ण है।
स्वर्ग में मेरा और कौन है?
तेरे संग रहते हुए मैं पृय्वी पर और कुछ नहीं चाहता (पद 25)।
आसाप के पास आख़िरकार परमेश्वर ही था और उसे उसकी ज़रूरत भी थी। वह परमेश्वर की
देखभाल में आराम कर सकता था और उसे विश्वास था कि उसके परमेश्वर की तुलना में और कुछ भी नहीं है।
2परमेश्वर ही वह पूर्णतया
सामर्थ्य है जिसकी हमें आवश्यकता है।
मेरे ह्रदय और मन दोनों तो हार गए हैं, परन्तु परमेश्वर
सर्वदा के लिये मेरा भाग और मेरे ह्रदय की चट्टान बना है। (v. 26).
उन क्षणों में जब आसाप को अपनी सामर्थ्य पर भरोसा करने की परीक्षा हुई, उसने पाया कि केवल परमेश्वर में ही उसे वह अंतहीन सामर्थ्य मिल सकती है जिसकी उसे जरूरत है।
∇ प्रेरित पौलुस जानता था कि कठिन परिस्थितियों में रहना कैसा होता है। लेकिन वह यह भी जानता था कि यह परमेश्वर ही था जिसने उसे सहने की शक्ति दी थी। जेल से उसने लिखा: “जो मुझे सामर्थ देता है उसमें मैं सब कुछ कर सकता हूं” (फिलिप्पियों 4:13)।
3परमेश्वर उतना ही निष्पक्ष
होगा जितना वह दयालु है।
जो तुझ से दूर रहते हैं वे तो नाश होंगे;
जो कोई तेरे विरुद्ध व्यभिचार करता है,उसका तू विनाश करता है (पद 27)।
आसाप ने स्वयं को अधर्मी लोगों और उनकी समृद्धि से ईर्ष्या करते हुए पाया था (पद 3)। उसने जीवन की स्पष्ट असमानताओं से संघर्ष किया (पद- 4-12)। यहां तक कि उसे यह महसूस होने लगा कि वह व्यर्थ ही परमेश्वर के लिए जीया (पद 13)।
लेकिन अंत में, आसाप ने स्वीकार किया कि ऐसे मामलों को परमेश्वर को सौंप देना जाना चाहिए। जैसा कि इब्राहीम ने कहा, “क्या सारी पृथ्वी का न्यायी न्याय न करे?” (उत्पत्ति 18:25) हाँ, और आसाप ने भरोसा करना सीख लिया था कि प्रभु, अपने समय और बुद्धि के अनुसार, जीवन की सभी गलतियों से दयापूर्वक लेकिन न्यायपूर्वक निपटेगा।
4परमेश्वर उनके निकट
आता हैं जो उसके निकट आते हैं।
परमेश्वर के समीप रहना, यही मेरे लिये भला है;
मैं ने प्रभु यहोवा को अपना शरणस्थान माना है,
जिस से मैं तेरे सब कामों का वर्णन करूँ (पद 28)।
आसाप का उत्तरदायित्व संसार पर फैसला सुनाना या खुद न्याय लाने की कोशिश करना नहीं था। याकूब की तरह, आसाप ने भी सीखा कि जीवन भर उसका उत्तरदायित्व यह था कि: “परमेश्वर के निकट आओ और वह तुम्हारे निकट आएगा” (याकूब 4:8)।
∇ इसका मतलब यह नहीं है कि परमेश्वर के अनुयायियों को पीड़ा और अन्याय को अनदेखा करना चाहिए। बाइबल दूसरों की ज़रूरतों को अपनी ज़रूरतों से पहले रखने के उपदेशों से भरी है। मीका 6:8 हमें “न्याय से काम करने, कृपा से प्रीती रखने, और अपने परमेश्वर के साथ नम्रता से चलने” के लिए कहता है। और याकूब 1:27 हमें याद दिलाता है कि “शुद्ध और निर्मल भक्ति ….यह है: अनाथों और विधवाओं के क्लेश में उनकी सुधि ले, और अपने आप को संसार से निष्कलंक रखे।”
आसाप का अंतिम निष्कर्ष यह था कि परमेश्वर,अपनी अनंत भलाई और बुद्धि में,तब भी नियंत्रण में है जब हम पीड़ित होते हैं और नही जानते कि क्यों पीड़ित है। यद्यपि इस पतित संसार में जीवन कठिन है, फिर भी परमेश्वर सदैव न्यायी रहेगा। विश्वास के द्वारा, आसाप उस अंगीकार के गहरे, व्यक्तिगत विश्वास पर पहुँच गया जिसका उल्लेख उसने अपनी कहानी शुरू करते समय किया था: “सचमुच इस्राएल के लिए अर्थात शुद्ध मन वालों के लिए परमेश्वर भला हैं!” (पद- 1)