यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें। 1 कुरिन्थियो 12:25
इन दिनों मेरे बरामदे पर युद्ध छिड़ा हुआ हैI यह हर दिन की लड़ाई है जो सिल्वेस्टर और क्रिस के बीच लड़ी जाती है—दो स्थानीय गिलहरियाँ जिनके बारे में जान कर मुझे बहुत मज़ा आया—जो पीनट बटर और काष्ठफल(Nuts) की दावत खाते है जो मैं उनके लिए बाहर रखती हूंI एक गिलहरी को निश्चित रूप से पहले उपहार मिल जाते है और वह इर्ष्यापूर्वक उनकी रक्षा करते हुए ज़ोर से आवाज़ करते हुए दूसरी गिलहरी को भगाता है अगर वह उसके ज़्यादा नज़दीक आ जाता है,विडंबना यह है की वहां मेरे दोनों गिलहरी दोस्तों के लिए काफ़ी उपहार है अगर वे दोनों उसे आपस में बाँट सकेंI दोनों ही शांति से खा सकते है,लेकिन अब तक सिर्फ अभी तक आत्म-सुरक्षात्मक अस्तित्व की प्रवृत्ति ही प्रबल हुई है,और इसलिए युद्ध जारी हैI
जीवित रहने के लिए युद्ध की अपेक्षा जानवरों की दुनिया में की जा सकती है परन्तु पौलुस चाहते थे कि नए विश्वासी यह जाने कि यह आत्म-घातक और खतरनाक हो सकता है जब ऐसा विश्वासियों के परिवार में होता है, विश्वासी—जिन्होंने अपना विश्वास यीशु पर रखा है—और उसकी आत्मा द्वारा परस्पर –निर्भर एक देह में जुड़े है, मसीह की देह (1 कुरिन्थियों 12:12-13) और इस देह में,आत्म-सुरक्षा के लिए एक दूसरे से लड़ना बेतुका हैI
पौलुस जोर देते है, जैसे आँख हाथ से कह रही हो कि “मुझे तुम्हारी ज़रुरत नहीं हैI” (वचन-21)
दोनों ही बातों में,जब हम सहमत होते है और जब हम सहमत नहीं होते है हम अपने साथी विश्वासियों से बहुत कुछ सीख सकते है(वचन-22) हम एक दूसरे के साथ प्रतियोगिता में नहीं है; हमें एक दूसरे की ज़रूरत है,एक दूसरे के चेहरे में हम यीशु को देखते हैI
आपने कब प्रतिस्पर्धा की भावना को रिश्ते में नुक्सान पहुंचाते हुए देखा है?आप कब बिना संघर्ष के पारस्परिक संबंधों द्वारा आशीषित हुए है?
प्यारे परमेश्वर, दूसरों के प्रति क्रोध और कड़वाहट की भावना में उतरना कितना आसान है यहाँ तक कि साथी विश्वासियों से भी जो आप में है मगर हम जानते है की एक बेहतर तरीका है —हमें अपना तरीका सिखाइएI
1 कुरिन्थियो 12:12-22
12 मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं। और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है। 13 हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सब को एक ही आत्मा का पान कराया गया है। 14 शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं। 15 यदि पैर कहे, “मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? 16 यदि कान कहे, “मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? 17 यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता? 18 वास्तव में परमेश्वर ने अपनी इच्छानुसार प्रत्येक अंग को शरीर में स्थान दिया है। 19 यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? 20 वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी एक ही शरीर होता है। 21 आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं”, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं।” 22 वरन् इसके विपरीत, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं।