मेरा घर एक बड़े पहाड़ की एक घाटी की आड़ में एक सकरे नाले के निकट है l बसंत में बर्फ गलकर और भरी वर्षा के बाद यह नाला, नदी बन जाती है l लोग इसमें डूबे भी हैं l इस नाले का उद्गम पहाड़ पर एक बर्फक्षेत्र है l वहां से बर्फ पिघलकर मेरे घर के नीचे दुसरे छोटे नालों ले मिलकर बड़ा हो जाता है l
मेरी प्रार्थना ज्यादातर गलत दिशा में जाती है l मैं अपनी चिंता लेकर परमेश्वर से विनती करता हूँ, और उसके विचार को बदलने की आशा रखकर दिव्य विमुखता को पराजित करना चाहता हूँ l इसके बदले, मुझे उद्गम की ओर धारा के प्रतिकूल आरंभ करना चाहिए l
दिशा बदलने पर, हम जानते हैं कि परमेश्वर हमारी चिंताओं को हमसे अधिक जानता है – एक प्रिय का कैंसर, एक टूटा परिवार, एक विद्रोही किशोर (मत्ती 6:8) l
जल की तरह अनुग्रह नीचे पहुँचता है l करुणा की नदी बहती है l हम परमेश्वर से पूछते हैं कि इस पृथ्वी पर उसके कार्य में हमारी भूमिका क्या हो सकती है l प्रार्थना की इस आरंभ बिंदु के साथ, हमारा दृष्टिकोण बदलता है l
हम प्रकृति में महान कलाकार का हस्ताक्षर देखते हैं l हम मानव को देखकर उनमें परमेश्वर की छवि का अनंत नियति देखते हैं l धन्यवाद और प्रशंसा के स्वाभाविक प्रतिउत्तर उसके प्रति उमड़ते हैं l