“सभी कर रहे हैं” युवावस्था में मुझे एक विजयी तर्क लगा, किन्तु ऐसा नहीं था l मेरी बेसब्री के बावजूद मेरे माता-पिता ऐसे अनुरोध नहीं सुनते थे जिसे वे असुरक्षित और मुर्खता समझते थे l
उम्र में बढ़ते हुए हम अपनी इच्छापूर्ति हेतु अपने तर्क-वितर्क में और बुद्धिसंगत व्याख्या जोड़ते हैं : “कोई परेशान नहीं होगा l” “यह गैरकानूनी नहीं है l” “उसने पहले मेरे साथ किया l” “उसे पता नहीं चलेगा l” प्रत्येक तर्क में मेरी इच्छा सबसे महत्वपूर्ण होती है l
अंततः, यह गलत सोच परमेश्वर के विषय हमारे विश्वास का आधार बन जाता है l एक झूठ जिसका चुनाव हम कभी-कभी इस विश्वास से करते हैं कि परमेश्वर नहीं, हम सृष्टि के केंद्र हैं l जब हम संसार को अपने तरीके से पुनः व्यवस्थित करेंगे तब ही हम चिंतामुक्त और खुश होंगे l यह युक्तियुक्त लगता है क्योंकि यह आरामदेह, जल्दी फलीभूत होने की प्रतिज्ञा करता है l इसका तर्क है, “परमेश्वर प्रेम है, इसलिए उसकी इच्छा है कि मैं ख़ुशी के लिए अपनी इच्छापूर्ति करूँ l” किन्तु यह दुःख लाती है l
यीशु ने अपने विश्वासियों से कहा कि सत्य उन्हें सचमुच स्वतंत्र करेगा (यूहन्ना 8:31-32) l किन्तु उसने चेतावनी भी दी, “जो पाप करता है वह पाप का दास है” (पर.34) l
सर्वोत्तम ख़ुशी यीशु को जीवन का पूर्ण और संतोषदायक मार्ग मानने से मिलती है l