एक मध्य आयु व्यक्ति मुझसे प्रश्न किया जब मैंने उसके कार्यस्थल पर एक कार्यशाला संचालित किया : “मैं लगभग अपनी पूरी उम्र मसीही रहा हूँ, किन्तु अपने आप में निरंतर निराश l ऐसा क्यों हैं कि जो मैं करना चाहता हूँ नहीं कर पाता हूँ और जो चाहता हूँ नहीं कर पाता हूँ? क्या परमेश्वर मुझसे परेशान नहीं हो रहा है?” निकट खड़े दो लोग भी प्रतिउत्तर सुनना चाहते थे l
यह सामान्य संघर्ष है और पौलुस ने भी इसका अनुभव किया l ”जो मैं करता हूँ उस को नहीं जानता,” उसने कहा, “क्योंकि जो मैं चाहता हूँ वह नहीं किया करता, परन्तु जिस से मुझे घृणा आती है वही करता हूँ” (रोमी. 7:15) l किन्तु यहाँ कुछ सुसमाचार है : हमें निराशा के फंदे में रहने की ज़रूरत नहीं l रोमियों 8 में लिखी पौलुस की बातों की व्याख्या, व्यवस्था से ध्यान हटाकर यीशु पर ध्यान लगाना है l हम अपनी सामर्थ्य से अपने पापी दशा का हल नहीं निकाल सकते l उत्तर है “नियम के पालन में परिश्रम नहीं करना l” इसके बदले, करुणा करनेवाले पर ध्यान देकर परिवर्तन करनेवाले आत्मा का सहयोग करना l
व्यवस्था पर ध्यान देने से, हमें निरंतर ताकीद मिलेगी कि हम परमेश्वर का अनुग्रह पाने हेतु कभी भी उतने भले नहीं हो सकते l किन्तु यीशु पर ध्यान करने से, हम उसके समान बनते हैं l