मेरी विधवा थी और गंभीर स्वास्थ्य चुनौतियों से जूझ रही थी, जब उसकी बेटी ने अपने घर से सटे “नानी निवास” में उसे रहने को बुलाया l यद्यपि इसमें मित्रों और अपने परिवार से दूरी सम्मिलित थी, मेरी परमेश्वर के प्रावधान हेतु आनंदित हुयी l
उसके नए जीवन के छः महीने बाद, आरंभिक आनंद और संतोष जाने लगा जब वह मन में कुड़कुड़ाकर शंकित हुई कि क्या यह वास्तव में परमेश्वर की सिद्ध योजना थी l उसे मसीही मित्रों का अभाव खलने लगा, और दूरी के कारण अकेले चर्च जाना असंभव था l
तब उसने 19 वीं शताब्दी प्रचारक चार्ल्स स्पर्जन द्वारा लिखित कुछ पढ़ी l उसने लिखा, “अब संतोष स्वर्ग का एक पुष्प है, जिसे विकसित करना होगा l” “पौलुस कहता है … ‘मैंने सीखा है कि … संतोष करूँ,’ मानो वह एक समय अज्ञान था l
मेरी समझ गयी कि यदि एक उत्साही प्रचारक, पौलुस कैद में बंद, मित्रों द्वारा परित्यक्त, और फांसी को तैयार संतोषी हो सकता था, तो वह भी l
उसने कहा, “मैं जान गयी कि यह सीखने के बाद ही मैं परमेश्वर की योजना का आनंद ले सकती थी l” इसलिए मैं कुड़कुड़ाना छोड़कर क्षमा मांगी l शीघ्र ही सेवानिवृत एक महिला उसकी प्रार्थना सहयोगी बनी, और दूसरे उसे चर्च ले जाने को तैयार हुए l एक “आत्मीय मित्र” और बृहद गतिशीलता की मेरी ज़रूरत अद्भुत रीति से पूरी हुई l