जब मैं ओहायो में एक छोटा लड़का था, हम कई निर्माण स्थलों के पास रहते थे l उनसे प्रेरित होकर, मैंने और मेरे मित्रों ने एक किला बनाने के लिए बचे हुए स्क्रैप/रद्दी चीजों को इकठ्ठा किया l अपने माता-पिता से उपकरण मांग कर, हमने लकड़ी ढोए और अपनी सामग्री को हमारे उद्देश्यों के लिए उपयुक्त बनाने के प्रयास में कई दिन बिताए l यह मजेदार था, लेकिन हमारे प्रयास हमारे आस-पास की अच्छी तरह से निर्मित इमारतों का खराब प्रतिबिम्ब थे l वे लम्बे समय तक नहीं टिके l 

उत्पत्ति 11 में, हमारा सामना एक प्रमुख भवन निर्माण परियोजना से होता है l “आओ, हम एक नगर . . . बना लें,” लोगों ने कहा, “एक गुम्मट बना लें, जिसकी चोटी आकाश से बातें करे”(पद.4) l इस प्रयास के साथ एक बड़ी समस्या यह थी कि लोगों ने इसे “अपना नाम [करने]” के लिए किया था(पद.4 l  

यह मनुष्यों के लिए बार-बार का मुद्दा रहा है; हम अपने और अपनी उपलब्द्धियों के स्मारक बनाते हैं l बाद में बाइबल की कथा में, इस कहानी की तुलना परमेश्वर के मंदिर के निर्माण के लिए सुलैमान की प्रेरणा से की गयी है : “मैं ने अपने परमेश्वर यहोवा के नाम का एक भवन बनवाने की ठान रखी है”(1 राजा 5:5) l 

सुलैमान ने समझा कि उसने जो कुछ भी बनाया है उसे परमेश्वर की ओर इशारा करना है न कि स्वयं की ओर l यह इतना महत्वपूर्ण सबक था कि उसने इसके बारे में एक भजन भी लिखा l भजन 127 की शुरुआत “यदि घर को यहोवा न बनाए, तो उसके बनानेवालों का परिश्रम व्यर्थ होगा”(पद.1) l मेरे बचपन के किले-निर्माण की तरह, हम जो बनाते हैं वह टिकेगा नहीं, लेकिन परमेश्वर का नाम और हम उसके लिए जो करते हैं उसका स्थायी महत्व है l