प्रवासी यीशु

लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं, पर मनुष्य के पुत्र को सिर धरने की भी जगह नहीं l ~ लूका  9:58

प्रवासन एक असामान्य बाइबल विषय नहीं है l पुराने नियम में अब्राहम और सारा को ऊर की भूमि से कनान देश की ओर पलायन करने की आज्ञा दी गयी (उत्त्पति 12:1-2). इस्राएलियों का अपना प्रवासी अनुभव 40 वर्षों से अधिक था और परमेश्वर चाहता था कि वे इस बात को हमेशा याद रखें l उसने कहा: “यदि कोई परदेशी तुम्हारे देश में तुम्हारे संग रहे, तो उसको दुःख न देना l जो परदेशी तुम्हारे संग रहे वह तुम्हारे लिए देशी के समान हो, और उससे अपने ही समान प्रेम रखना; क्योंकि तुम भी मिस्र देश में परदेशी थे; मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ” (लैव्यव्यवस्था 19:33-34)l

मसीह के जन्म से पहले, उसकी माँ मरियम बच्चे को जन्म देने के लिए एक सुरक्षित स्थान खोजने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गयी l सभ्यता का प्रत्येक द्वार उनके लिए बंद कर दिया गया था जिसके कारण उसे गौशाले में जाना पड़ा l और इसलिए, यीशु मसीह ने संघर्ष और भय के बीच हमारी दुनिया में प्रवेश किया । उसने मिस्र में शरणार्थी और प्रवासी के रूप में छिपी अपनी बाल्यावस्था बितायी । सुसमाचार बेतलहेम के लिए कठिन यात्रा, स्वागत की कमी, गौशाले के जानवरों के बीच जन्म का वर्णन करते हैं । हेरोदेस के उत्पीड़न, निर्दोषों के नरसंहार और मिस्र को भागने के उल्लेख को छोड़कर l प्रेरित यूहन्ना लिखता है “वह अपने घर आया और उसके अपनों ने उसे ग्रहण नहीं किया” (यूहन्ना 1:11) l यीशु ने समझा कि प्रवासी होना क्या होता है l

एक पल के लिए यहाँ रुकें और बंद दरवाजों के अनुभव पर चलें l परमेश्वर हमें खतरे से बचाने के लिए कभी-कभी दरवाजे बंद कर देता है, वह हमेशा दूसरा दरवाजा नहीं खोलता है लेकिन वह हमेशा हमारे भले के लिए करता है l लेकिन जब हम अपने साथियों के लिए दरवाजे बंद करते हैं तो हम परमेश्वर की भूमिका निभाना शुरू करते हैं और ऐसा करने के लिए हम चुनते हैं कि किसे अन्दर रखना है और किसको बाहर रखना है l हम न्याय को अपने हाथों में लेते हैं और मापते हैं कि कोई कितना न्याय का हकदार है, और हमें इसे किसी और को कितना कम बांटना चाहिये l

जब यीशु आज विस्थापित प्रवासी को देखता है, जो भोजन और पानी के बिना धधकती गर्मी में, नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर आता है, वह वास्तव में उनकी हालत को समझता है, क्योंकि वह भी ऐसी ख़राब परिस्थियों में पैदा हुआ था l बैतलहेम से लेकर मिस्र और फिर गलील तक, ये विशेष रूप से छोटी दूरी की नहीं हैं, जब आप विचार करते हैं कि यह एक नम्र गधे की पीठ पर या पैदल चलना था l वह कभी नहीं जानता था कि उसका अगला भोजन कब या कहाँ से आएगा, और इसलिए जब वह बाद में एक व्यस्क के रूप में सैकड़ों लोगों से बात करता, तो उसने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए कहा “इसलिए मैं तुम से कहता हूँ कि अपने प्राण के लिए यह चिंता न करना कि हम क्या खाएँगे और क्या पीएँगे; और न अपने शरीर के लिए कि क्या पहिनेंगे l क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं? आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; फिर भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको खिलाता है l क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती 6) वह अपने अनुभव से बोल रहा था, उस निश्चयता और भरोसे से कि परमेश्वर उनको भोजन खिलाएगा l

अपनी समस्त सेवा के दौरान, यीशु को भ्रमणशील, शिक्षक, और चंगा करनेवाले के रूप में चित्रित किया गया था, जो यहूदिया और सामरिया में घूमकर सभी के साथ प्रेम, और उद्धार का सन्देश साझा किया l उसका अपना कोई ठिकाना नहीं था और अपनी और अपने शिष्यों के ज़रूरतों के लिए दूसरों की उदारता पर निर्भर था l

आज प्रवासियों पर कोई भी चर्चा उन्हें वे संदर्भित करने को प्रवृत होता है, वह शब्द उस दूसरे के रूप में अपमानजनक सन्दर्भों से भरा हुआ है l लेकिन कोई गलती न करें, वे वह हैं जो हमारे शहर और जीवन को बनाते हैं, वे हमारे बर्तन धोते हैं, हमारे कपड़े धोते हैं, हमारी कारों को ठीक करते हैं, रेस्टोरेंट में हमें भोजन परोसते हैं, घर पर पानी के फ़िल्टर ठीक करते हैं और काम करते हैं, हमें कार्यस्थल पर पहुँचाने के लिए हमारी गाड़ी चलाते हैं और यहाँ तक कि कुछ ही क्लिक के द्वारा हमारे घरों पर हमारे पसंदीदा भोजन पहुंचाते हैं l वे ऐसी चीजें करते हैं जो हम करना पसंद नहीं करते हैं और उनकी वजह से हमारा जीवन बेहतर है l

1 पतरस 2:11, में, प्रेरित सभी मसीहियों को “परदेशी और यात्री” कहता है l जिस तरह परमेश्वर ने इस्राएलियों को याद दिलाया कि वे एक बार प्रवासी और यात्री थे परमेश्वर हमें याद दिलाता है कि हम जो इस संसार से गुज़र रहे हैं प्रवासी ही हैं l आज हमारी देश की स्थिति परमेश्वर के सच्चे न्याय को नहीं दर्शाती है l हालाँकि, यीशु ने अपने शब्दों में यह सुस्पष्ट कर दिया कि हम उसके अनुयायियों के रूप में अपने पड़ोसी की ज़रूरतों के प्रति उदासीन रहकर परमेश्वर से प्रेम करने का दावा नहीं कर सकते l हम उन ज़रुरतमंदों की दुर्दशा पर दरवाजा बंद नहीं कर सकते l जब हम किसी अजनबी के लिए अपने दरवाजे खोलते हैं, तो हम इसे हमारे द्वारा परमेश्वर के काम के लिए खोलते हैं, जैसा कि हम इब्रानियों 13:2 में पढ़ते हैं “अतिथि -सत्कार करना न भूलना, क्योंकि इसके द्वारा कुछ लोगों ने अनजाने में स्वर्गदूतों का आदर सत्कार किया है l”  तो हम क्या करें? सहायता के लिए हमारे हाथ उनके पास पहुंचें, उनके लिए प्रार्थना करें, और यदि स्थिति उत्पन्न होती है तो खुले हाथों से उनका स्वागत करें l प्रत्येक प्रवासी के चेहरे में हम परमेश्वर की ‘छवि’ पाते हैं l आइये हम प्रत्येक प्रवासी में यीशु के उस छोटे से अंश को पहचाने, जिस प्रकार यीशु में एक प्रवासी था l

-पास्टर आनन्द पीकॉक