जनवरी 1957 में उनके घर पर एक बम विस्फोट होने से तीन दिन पहले, डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के साथ एक ऐसा सामना हुआ जिसने उन्हें जीवन भर के लिए यादगार बना दिया। एक धमकी भरा फ़ोन कॉल प्राप्त करने के बाद, किंग ने नागरिक अधिकार(civil rights) आंदोलन से बाहर निकलने की रणनीति पर विचार करना शुरू कर दिया। तब उनकी आत्मा से प्रार्थनाएँ निकलीं। “मैं यहां उस बात के लिए खड़ा हो रहा हूं जिसे मैं सही मानता हूं। लेकिन अब मैं डर गया हूं। मेरे पास कुछ नहीं बचा है। मैं उस जगह पर आ गया हूँ जहाँ मैं अकेले इसका सामना नहीं कर सकता।” उनकी प्रार्थना के बाद शांति का आश्वासन मिला। किंग ने कहा, “लगभग तुरंत ही मेरा डर ख़त्म होने लगा। मेरी अनिश्चितता दूर हो गई।
यूहन्ना 12 में, यीशु ने कहा, “अब मेरा जी व्याकुल है” (पद.27)। वह अपने आंतरिक स्वभाव के प्रति पारदर्शी रूप से ईमानदार था; फिर भी वह अपनी प्रार्थना में परमेश्वर-केंद्रित था। “हे पिता, अपने नाम की महिमा कर” (पद.28)। यीशु की प्रार्थना परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण था।
जब हम अपने सामने परमेश्वर का सम्मान करने या न करने का विकल्प पाते हैं तो भय और असुविधा का पीड़ा महसूस करना हमारे लिए कितना मानवीय है; जब बुद्धि के लिए रिश्तों, आदतों या अन्य पैटर्न/स्वरूप (अच्छे या बुरे) के बारे में कठोर निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हमें किस चीज़ का सामना करना पड़ा है, जब हम साहसपूर्वक परमेश्वर से प्रार्थना करते है, वह हमें हमारे और डर और असहजता पर काबू पाने और वह करने के लिए सामर्थ्य देगा जो उसको महिमा देता है—हमारी भलाई और दूसरों की भलाई के लिए।
परमेश्वर को सम्मानित करने के लिए किन अनुभवों ने प्रार्थनाओं को प्रेरित किया है? ऐसी परिस्थितियों का सामना कर रहे अन्य लोगों को आप क्या सलाह देंगे?
हे पिता, मुझे चुनौतीपूर्ण चीजों का ईमानदारी और प्रार्थनापूर्वक सामना करने में मदद करें जो मेरी भलाई के लिए हैं और आपको महिमा दिलाएंगी।