बचपन में, मैं बड़ों को बुद्धिमान और असफल होने में असमर्थ मानता था l मुझे लगता था कि वे हमेशा जानते हैं कि क्या करना है l एक दिन, बड़ा होने पर, मुझे भी हमेशा पता रहेगा कि मुझे क्या करना है l खैर, कई वर्ष पहले “एक दिन” आया, और इसने मुझे बस इतना सिखाया है कि, कई बार, मैं अभी भी नहीं जानता कि क्या करना है l चाहे परिवार में बीमारी, काम में समस्याएँ, या किसी रिश्ते में संघर्ष हो, ऐसे समय ने व्यक्तिगत नियंत्रण और ताकत के सभी भ्रमों को दूर कर दिया है, बस एक ही विकल्प बचता है—अपनी आँखें बंद करके फुसफुसाने का, “परमेश्वर, मदद कीजिए l मुझे नहीं पता क्या करना है l”
प्रेरित पौलुस ने बेबसी को समझा l उसके जीवन में “काँटा,” संभवतः एक शारीरिक बिमारी, ने उसे बहुत निराशा और पीड़ा पहुंचाई l हलाकि, इसका कारण कांटा ही था, कि पौलुस ने परमेश्वर के प्रेम, प्रतिज्ञाओं और आशीषों को अनुभव किया जो उसके लिए अपनी कठिनाइयों को सहने और काबू पाने के लिए पर्याप्त था (2 कुरिन्थियों 12:9) l उसने सीखा कि व्यक्तिगत कमजोरी और लाचारी हार नहीं है l जब ये विश्वास संग ईश्वर को समर्पित किया जाता है, तो वे इन परिस्थितियों में और उनके द्वारा काम करने के लिए उसके लिए उपकरण बन जाते हैं (पद.9-10) l
हमारा बड़ा होना यह नहीं है कि हम सर्वज्ञ हैं l वास्तव में, हम उम्र के साथ समझदार होते जाते हैं, लेकिन अंततः हमारी कमजोरियां अक्सर हमारी वास्तविक शक्तिहीनता दर्शाती हैं l हमारी सच्ची शक्ति मसीह में हैं : “क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूँ, तभी बलवंत होता हूँ” (पद.10) l वास्तव में “बड़े होने” का अर्थ उस शक्ति को जानना, भरोसा करना और उसका पालन करना है जो तब आती है जब हमें एहसास होता है कि हमें ईश्वर की सहायता की ज़रूरत है l
कौन सी आजमाइशें आपको आपकी विवशता का एहसास कराती हैं? आप परमेश्वर के मार्गदर्शन का पालन कैसे कर सकते हैं?
स्वर्गिक पिता, मेरी मदद और ताकत बनने के लिए धन्यवाद l