काठमांडू में एक मित्र के चर्च की यात्रा के दौरान, मैंने एक चिन्ह देखा जो उसने द्वार पर लगा रखा था। उस पर लिखा था, “चर्च पापियों के लिए एक अस्पताल है न कि संतों के लिए एक संग्रहालय l” हालांकि मैं संग्रहालय शब्द के बारे में निश्चित नहीं हूं, लेकिन मुझे अस्पताल की  समानता पसंद है। मेरे विचार से यह एकदम सही है।

डॉक्टर, नर्स, प्रशासनिक कर्मचारी, मरीज और कई अन्य लोगों से अस्पताल बनता है। अस्पताल में हम लगभग सभी ज्ञात भावनाएँ पा सकते हैं l हम, यानि डॉक्टर्स और नर्सिंग स्टाफ में भी अस्पताल में मरीज बनने की प्रवृत्ति होती है और उनमें से कई लोग होते भी हैं।

सी. एस. लियुईस ने ही कहा था, “मुझे उसी अस्पताल में साथी मरीज समझो। लेकिन कुछ समय पहले भर्ती होने पर, वह कुछ सलाह दे सकता था।” किसी प्रकार की पूर्णता से नहीं, बल्कि एक साथी रोगी के रूप में, फरीसियों के विपरीत, जो स्वधर्मी अहंकार के ऊंचे आसन से बोलते थे, “मैं न कभी बीमार हुआ हूं और न कभी होऊंगा l”

यीशु ‘यद्यपि उसने पाप नहीं किया था’ एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बोला जो ‘पाप बन गया’ और इसलिए वह ‘चुंगी लेने वालों और पापियों’ का मित्र था। प्रश्न यह है कि क्या हम पापियों के मित्र हैं जिन्हें उसके अनुग्रह और दया की आवश्यकता है?