कैंपस के युवा पास्टर परेशान थे। लेकिन जब मैंने यह पूछने की हिम्मत की कि क्या वे परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते हैं तो वे विरोधात्मक दिखाई दिए l निरंतर प्रार्थना करें, जैसा कि पौलुस ने आग्रह किया; जवाब में, युवक ने कबूल किया, “मुझे यकीन नहीं है कि मैं अब प्रार्थना में विश्वास करता हूँ l” उनकी भौंहों पर बल पड़े। “या विश्वास करूँ कि परमेश्वर सुन रहा है। जरा दुनिया को देखो l” वह युवा अगुवा अपनी शक्ति से एक सेवकाई का “निर्माण” कर रहा था और दुख की बात है कि वह असफल हो रहा था । क्यों? क्योंकि वह परमेश्वर को नकार (अस्वीकार) रहा था ।
यीशु, कलीसिया के सिरे के पत्थर (आधारशिला) के रूप में, हमेशा अस्वीकार किया गया है—वास्तव में, अस्वीकार करना उसके अपने ही लोगों के साथ शुरू हुआ (यूहन्ना 1:11) । बहुत से लोग आज भी उसे अस्वीकार करते हैं, संघर्ष कर रहे हैं अपने जीवन, अपने कार्य में, यहां तक कि कलीसियाओं को एक हलकी नीव—उनकी अपनी योजनाएं, सपने और अन्य अस्थिर भूमि पर बनाने के लिए । फिर भी, केवल हमारा अच्छा उद्धारकर्ता ही हमारी शक्ति और बचाव है (भजन संहिता 118:14) । वास्तव में, “जिस पत्थर को राजमिस्त्रियों ने निकम्मा ठहराया था, वही कोने का पत्थर हो गया” (पद.22) ।
हमारे जीवन के एक महत्वपूर्ण कोने में स्थित, वह किसी भी चीज़ के लिए एकमात्र सही सीध (सम्मति) प्रदान करता है जिसे उसके विश्वासी उसके लिए पूरा करना चाहते हैं। इसलिए, हम उससे प्रार्थना करते हैं, “हे यहोवा, विनती सुन, सफलता दे!” (पद.25) l परिणाम? “धन्य है वह जो यहोवा के नाम से आता है” (पद.26)। हम उसे धन्यवाद दें क्योंकि वह मजबूत और अच्छा है।
जब आप परमेश्वर के लिए निर्माण करते हैं तो आपके पास क्या सपना या योजनाएँ होती हैं? आप मसीह को अपनी योजना का आधारशिला के रूप में कैसे रख सकते हैं, उसके लिए इसे बनाते हुए?
यीशु, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप कोने का पत्थर हैं। केवल आप पर ही आपकी कलीसिया और हमारा जीवन टिक सकता है।