दैनिक क्षण
मैंने अपनी कार में किराने का सामन लादकर पार्किंग स्थल से निकला ही था कि अचानक एक व्यक्ति सड़क के किनारे से मेरे सामने आ पहुंचा l मैंने कार के ब्रेक्स लगाए और उसको बचा लिया l वह चौंककर मुझे घूरने लगा l उस क्षण, मैं अपनी आँखों को घुमाकर निराशा से उसे देख सकता था अथवा मुस्कराते हुए उसे क्षमा कर सकता था l मैं मुस्करा दिया l
उसके चेहरे पर शांति और उसके होठों पर धन्यवाद था l
नीतिवचन 15:13 कहता है, “मन आनंदित होने से मुख पर भी प्रसन्नता छा जाती है, परन्तु मन के दुःख से आत्मा निराश होती है l” क्या लेखक जीवन की हरेक बाधा, निराशा, और असुविधा में हमारे चेहरे पर मुस्कराहट चाहता है? शायद नहीं! वास्तविक शोक, निराशा, और अन्याय के प्रति क्रोध का समय होता है l किन्तु हमारे दैनिक क्षणों में, मुस्कराहट से आशा उत्पन्न होती है और आगे बढ़ने के लिए अनुग्रह मिलता है l
शायद नीतिवचन का इशारा है कि मुस्कराहट हमारे भीतरी व्यक्तित्व की स्थिति का स्वाभाविक परिणाम होता है l एक “आनंदित मन” शांत, संतुष्ट, और परमेश्वर से सर्वोत्तम पाने के प्रति समर्पित होता है l पूरी तौर से आनंदित हृदय द्वारा, हम चकित करनेवाली परिस्थितियों में भी वास्तविक मुस्कराहट से प्रतिउत्तर देकर, दूसरों को परमेश्वर के साथ आशा और शांति प्राप्त करने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं l
मनुष्य होना
जब समाज में अपनी भूमिका बताने के लिए बोला गया जो कभी-कभी कानून को लागू करने में असहयोगी था, उस शासनाधिकारी ने न तो अपना बैज दिखाया और न ही अपने पद के आधार पर जवाब दिया l इसके विपरीत उसने कहा, “हम मनुष्य हैं और उन मनुष्यों की मदद करते हैं जो संकट में हैं l”
उसकी दीनता अर्थात् अपने साथी मनुष्यों के साथ उसके द्वारा व्यक्त की गयी समानता, मुझे पतरस के शब्द याद दिलाते हैं जब वह रोमी शासन के आधीन सताव सह रहे प्रथम शताब्दी के मसीहियों को लिख रहा था l पतरस निर्देश देता है : “अतः सब के सब एक मन और कृपामय और भाईचारे की प्रीति रखनेवाले, और करुणामय, और नम्र बनो” (1 पतरस 3:8 ) l शायद पतरस कह रहा था कि जो मनुष्य संकट में हैं उनके साथ मनुष्य ही बनना होगा, यह याद रखने के लिए कि हम सब एक से हैं l आखिरकार, क्या परमेश्वर अपने पुत्र को भेजकर ऐसा ही नहीं किया l वह हमारी सहायता करने के लिए मनुष्य बना? (फ़िलि. 2:7) l
अपने पतित हृदयों के भीतर झाँकने पर, अपने मानवीय अवस्था का तिरस्कार एक परीक्षा की तरह है l किन्तु क्या होगा यदि हम अपने संसार में अपने इंसानियत को अपने बलिदान का एक भाग बना दें? यीशु हमें पूर्ण मनुष्य बनाकर जीना सिखाता है, सेवक के समान जो पहचानते हैं कि हम सब एक से हैं l परमेश्वर हमें “मनुष्य” ही बनाया है, अपनी समानता और स्वरुप में बनाया है और अपने शर्तहीन प्रेम से छुड़ाया है l
आज हम लोगों को अनेक संघर्षों से सामना करते पाते हैं l अंतर की कल्पना करें जो हम मनुष्य बनकर ला सकते हैं अर्थात् उन लोगों की मदद करनेवाले साथी मनुष्य जो संकट में हैं l
आपका सुरक्षित स्थान
मेरी बेटी और मैं एक बड़े पारिवारिक उत्सव के लिए तैयारी कर रहे थे l इसलिए कि वह उत्सव के विषय घबरायी हुई थी मैंने कहा कि मैं गाड़ी ड्राइव करुँगी l “ठीक है l किन्तु मैं अपनी कार में सुरक्षित महसूस करती हूँ l क्या आप चलाएंगी?” उसने पुछा l यह महसूस करके कि उसे मेरी गाड़ी छोटी लगती है, मैंने पूछा कि क्या मेरी गाड़ी बहुत छोटी थी l उसका उत्तर था, “नहीं, बस मेरी गाड़ी मुझे सुरक्षित लगती है l पता नहीं क्यों, मैं अपनी गाड़ी में आरामदायक महसूस करती हूँ l”
उसकी टिप्पणी ने मुझे मेरे “सुरक्षित स्थान” के सम्बन्ध में मुझे सोचने की चुनौती दी l तुरंत ही मैंने नीतिवचन 18:10 के विषय सोची, “यहोवा का नाम दृढ़ गढ़ है, धर्मी उसमें भागकर सब दुर्घटनाओं से बचता है l” पुराने नियम के काल में, दीवारें और पहरे की मीनार लोगों को बाहरी खतरों की चेतावनी के साथ-साथ उनकी रक्षा भी करती थीं l लेखक बताना चाहता है कि परमेश्वर का नाम, जो उसका चरित्र है, व्यक्तित्व और सब कुछ है जो वह है, उसके लोगों को वास्तविक सुरक्षा देती है l
ख़ास भौतिक स्थान खतरनाक क्षणों में इच्छित सुरक्षा देने का वादा करते हैं l तूफ़ान के मध्य एक मजबूत छत l चिकित्सीय सहायता देनेवाला एक हॉस्पिटल l एक प्रिय का गले लगाना l
आपका “सुरक्षित स्थान” क्या है? हम जहाँ भी सुरक्षा खोजते हैं, उस स्थान पर हमारे साथ परमेश्वर की उपस्थिति ही है जो हमारी ज़रूरत में हमें ताकत और सुरक्षा देती है l
नोज़ोमी की आशा
2011 में, टोकियो के उत्तरपूर्व क्षेत्र में 9 माप का भूकंप आया और परिणाम स्वरूप सुनामी ने लगभग 19,000 जानें ले लीं और 2,30,000 घर बर्बाद हो गए l उसके बाद, नोज़ोमी प्रोजेक्ट, जापानी शब्द “आशा” के लिए रखा गया नाम दीर्घकालिक आय, समुदाय, इज्ज़त, और प्रावधान करनेवाले परमेश्वर में आशा के लिए जन्म लिया l
नोज़ोमी स्त्रियाँ घरों के मलबे एवं साज़-सामानों में चीनी मिटटी के टुकड़े खोजकर और छानकर निकालती हैं और उन्हें रगड़कर ज़ेवर बनाने में लगाती हैं l ये ज़ेवर विश्व में बेचे जाते हैं, और स्त्रियों को जीविका देने के साथ-साथ मसीह में उनके विश्वास के प्रतीक भी लोगों में बांटे जाते हैं l
नए नियम के काल में, मिट्टी के साधारण अनिश्चित बरतनों में कीमती वस्तुओं को छिपाने का रिवाज़ था l पौलुस वर्णन करता है कि कैसे सुसमाचार का धन मसीह के अनुयायियों के मानवीय भंगुरता में रखा हुआ है : मिट्टी के बरतनों में (2 कुरिं. 4:7) l वह सलाह देता है कि वास्तव में हमारे जीवन रुपी तुच्छ और कभी-कभी टूट्रे हुए बर्तन भी - हमारी अपूर्णताओं की तुलना में परमेश्वर की सामर्थ्य को प्रगट कर सकते हैं l
जब परमेश्वर हमारे जीवनों के अपूर्ण और टूटे भागों में प्रवेश करता है, उसकी सामर्थ्य की आशा भरी चंगाई अक्सर दूसरों के सामने अधिक प्रत्यक्ष होती है l अवश्य ही, हमारे हृदयों में उसका सुधार कार्य अक्सर दरार के दाग़ छोड़ता है l किन्तु शायद हमारी सीख की ये रेखाएं हमारे व्यक्तित्वों में उकेरी हुई बातें ही हैं जो दूसरों में उसके चरित्र को और प्रगट करती हैं l