वर्षों पूर्व मैं एक-दो हफ़्तों में पत्रों के उत्तर देकर अपने पत्रव्यवहारियों को प्रसन्न रखता था l उसके बाद फैक्स मशीन, द्वारा लोग एक-दो दिनों में उत्तर पाकर संतुष्ट हो जाते थे l आज लोग, ई-मेल, त्वरित सन्देशन, और मोबाइल फोन से उत्तर की अपेक्षा उसी दिन करते हैं!
चुप हो जाओ, और जान लो कि मैं ही परमेश्वर हूँ l” भजन 46 के इस परिचित पद में मैं समान महत्व वाले दो आज्ञाएँ पढ़ता हूँ l प्रथम, शांत रहना, आधुनिक जीवन जिसके विरुद्ध है l इस उत्तेजित, कोलाहल भरे संसार में, हमें स्वाभाविक रूप से क्षणिक शांति भी अप्राप्य है l और शांतता दूसरी आज्ञा हेतु तैयार करती है : “जान लो कि मैं ही परमेश्वर हूँ l” ऐसे संसार में जो परमेश्वर को दबाना चाहता है, मैं किस तरह समय निकाल कर उसे अपने आन्तरिक जीवन को पोषित करने की अनुमति दे सकता हूँ?
पैट्रिशिया हम्पी लिखती है, “प्रार्थना हर एक की ध्यान देने की आदत है l” आहा, प्रार्थना … ध्यान देने की आदत l चुप हो जाओ और जान लो l प्रार्थना में प्रथम कदम है “जानना कि परमेश्वर ही परमेश्वर है l और उस ध्यान में, वह केंद्र, जिसमें सब कुछ केन्द्रित हो जाता है l प्रार्थना हमें हमारे पराजय, कमजोरियाँ, और परिसीमन को परमेश्वर के समक्ष स्वीकारने देता है जो मानवीय दोषपूर्णता का उत्तर अनंत करुणा से देता हैं l