घाना के दूरस्थ इलाके में, “भोजन का समय, कोई मित्र नहीं” एक सामान्य कहावत थी l भोजन की किल्लत के कारण स्थानीय लोग “भोजन के समय” किसी के घर जाना अशिष्ट मानते थे l नियम पड़ोसियों और बाहरी लोग दोनों ही के लिए था l

किन्तु फिलिपीन्स में, अचानक भोजन के समय किसी के आने पर, मेजबान भोजन बाँटकर खाते थे l अपने कुछ ख़ास कारणों से संस्कृतियों में भिन्नता होती है l

इस्राएलियों के मिस्र छोड़ते समय, परमेश्वर ने उनकी संस्कृति पर नियंत्रण हेतु ख़ास नियम दिए l किन्तु नियम-परमेश्वर के नियम भी-हृदय नहीं बदल सकते l इसलिए मूसा ने कहा, “अपने अपने हृदयों का खतना करो, और … हठीले न रहो” (व्यव. 10:16) l रुचिकर यह है, तुरंत बाद, मूसा ने परदेशियों के साथ इस्राएलियों के व्यवहार पर चर्चा की l परमेश्वर “परदेशियों से ऐसा प्रेम करता है कि उन्हें भोजन और वस्त्र देता है l इसलिए तुम भी परदेशियों से प्रेम भाव रखना; क्योंकि तुम भी मिस्र देश में परदेशी थे” (पद. 18-19) l

इस्राएल “ईश्वरों का परमेश्वर और प्रभुओं का प्रभु … महान पराक्रमी और भय योग्य ईश्वर” (पद.17) के उपासक थे l वे परदेशियों-उनकी संस्कृति के नहीं-से प्रेम करके परमेश्वर के साथ अपनी पहचान दर्शा सकते थे l

परमेश्वर के चरित्र की यह छोटी तस्वीर आज हमारे लिए क्या अर्थ रखती है? हम किस तरह हाशिये पर रहनेवालों और ज़रुरतमंदों तक उसका प्रेम पहुंचा सकते हैं?