मैं 1960 के उपद्रवी दशक में पला बढ़ा और धर्म की ओर अपनी पीठ फेर दी l मैं सम्पूर्ण जीवन चर्च गया किन्तु एक भयानक दुर्घटना के बाद अपने 20 वर्ष के आरंभ में विश्वास किया l उस समय से, मैंने अपनी व्यस्क अवस्था द्वारा हमारे लिए यीशु का प्रेम दूसरों तक पहुंचाने में लगाया है l यह एक यात्रा रही है l
सचमुच, “एक यात्रा” टूटे संसार में जीवन को दर्शाता है l मार्ग में हम पर्वत और घाटी, नदी और मैदान, व्यस्त राजमार्ग और एकांत मार्ग का अनुभव करते हैं-ऊपर और नीचे, आनंद और दुःख, विरोध और हानि, व्यथा और अकेलापन l हम आगे का मार्ग देख नहीं सकते, इसलिए उसे यूँही स्वीकार लेना चाहिए, जैसा हम चाहते हैं वैसा नहीं l
हालाँकि, मसीह का शिष्य, इस यात्रा में कभी अकेला नहीं l वचन हमें परमेश्वर की निरंतर उपस्थिति के विषय ताकीद देता है l ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ वह नहीं है (भजन 139:7-12) l वह हमें कभी भी न छोड़ेगा और न त्यागेगा (व्यव.31:6; इब्रा. 13:5) l यीशु, पवित्र आत्मा भेजने की प्रतिज्ञा करने के बाद, अपने शिष्यों से कहा, “मैं तुम्हें अनाथ नहीं छोडूंगा; मैं तुम्हारे पास आता हूँ” (यूहन्ना 14:18) l
अपनी यात्रा में हम समस्त चुनौतियों और अवसरों का सामना दृढ़ता से कर सकते हैं, क्योंकि परमेश्वर ने हमें अक्षय प्रतिज्ञाएँ दी हैं l