एक परिचित जवान आदतनुसार परमेश्वर से चिन्ह माँगता था l उसकी प्रार्थनाएँ उसकी भावनाओं का प्रमाण चाहती थीं l जैसे, उसकी प्रार्थना होगी, “परमेश्वर यदि तेरी इच्छा है मैं यह करूँ, तो आप वह करें, और मैं जान लूँगा वह ठीक है l”
इससे दुविधा हो गई है l क्योंकि उसका परमेश्वर से उत्तर प्राप्त करने के तरीके अनुसार वह अपनी पुरानी प्रेमिका के पास लौटना चाहता है जबकि वह मानती है कि परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है l
यीशु के युग के धार्मिक अगुए उसके दावों के प्रमाण में चिन्ह मांगते थे (मत्ती 16:1) l वे परमेश्वर के मार्गदर्शन के बदले; उसके दिव्य अधिकार को चुनौती देते थे l यीशु का उत्तर था, “इस युग के बुरे और व्यभिचारी लोग चिन्ह ढूढ़ते हैं” (पद.4) l यीशु का सशक्त प्रतिउत्तर परमेश्वर का मार्गदर्शन खोजने से रोकने हेतु एकमुश्त कथन नहीं, बल्कि, वचन में उसके अभिषिक्त होने के संकेत की अवहेलना हेतु, उनको दोषी ठहराना था l
परमेश्वर हमसे प्रार्थना में उसका मार्गदर्शन खोजने को कहता है (याकूब 1:5) l वह आत्मा (यूहन्ना 14:26) वचन (भजन 119:105) परामर्शदाता और बुद्धिमान अगुओं द्वारा भी मार्गदर्शन देता है l और उसने खुद यीशु का उदाहरण दिया है l
परमेश्वर का स्पष्ट मार्गदर्शन मांगने की इच्छा नेक है, किन्तु वह हमेशा हमारी इच्छानुसार नहीं करता l प्रार्थना का व्यापक बिंदु परमेश्वर का चरित्र जानना और पिता के साथ सम्बन्ध विकसित करना है l
परमेश्वर की इच्छा जानने का सर्वोत्तम तरीका है, परमेश्वर से कहना, “मैं करूँगा l”