यीशु के क्रूसित होने से कुछ पहले, मरियम नाम की स्त्री ने उसके पाँवों पर बहुमूल्य इत्र डालकर अपने बालों से उसको पोंछकर एक निर्भीक कार्य किया (यूहन्ना 12:3) l उसने केवल अपने जीवन की सम्पूर्ण बचत ही नहीं बल्कि अपना मान-मर्यादा भी न्योछावर कर दिया l प्रथम शताब्दी के मध्य-पूर्व संस्कृति में, शरीफ स्त्रियाँ सब के सामने अपने बाल नहीं खोलती थीं l किन्तु दूसरे हमारे विषय क्या सोचते हैं, सच्ची उपासना इसके विषय नहीं है (2 शमू. 6:21-22) l यीशु की आराधना में, मरियम ने खुद को लोगों के विचार में अशिष्ट, शायद अनैतिक भी मानने को तैयार थी l
हममें से कुछ लोग चर्च जाते समय सिद्ध बनने का तनाव महसूस करते हैं कि लोग हमारे विषय भला सोचेंगे l अलंकारिक रूप में, हम निश्चित करने के लिए मेहनत करते हैं कि सब कुछ यथास्थिति है l किन्तु एक स्वस्थ कलीसिया ऐसी जगह है जहाँ हम अपनी सभी रुकावटें हटा सकते हैं और सिद्धता के मुखौटा में हमें अपना दोष छिपाने की ज़रूरत नहीं है l चर्च में, हम सामर्थ्य पाने के लिए अपनी गलतियों को शक्तिशाली दर्शाने की जगह उसे प्रगट कर सकें l
जैसे कुछ भी गलत नहीं, आराधना में ऐसा आचरण ठीक नहीं l यह पक्का करना है कि परमेश्वर और एक दूसरे के साथ सब कुछ सही है l जब अपनी कमजोरी बताना हमारा सबसे बड़ा भय हो, शायद उसे छुपाना सबसे बड़ा पाप हो सकता है l
हमारी आराधना सही तब है जब परमेश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध सही है l