अगस्त 2015 में, जब मैं अपने घर से दो घंटे की दूरी पर एक विश्वविद्यालय में पढ़ने की तैयारी कर रही थी, मैंने महसूस किया कि पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं वापस अपने घर नहीं लौट पाऊंगी l मेरा मस्तिष्क बहुत तीव्रता से विचार करने लगा l मैं अपना घर कैसे छोड़ सकती हूँ? मेरा परिवार? मेरी कलीसिया? क्या होगा यदि बाद में परमेश्वर मुझे किसी और राज्य अथवा देश में जाने को कहता है?
मूसा की तरह ही, जब परमेश्वर ने उसे “फ़िरौन के पास [जाने को कहा] कि [वह] इस्राएलियों को मिस्र से निकाल ले [आए] (निर्गमन 3:10), मैं डर भी गयी l मैं अपने आराम के स्थान को नहीं छोड़ना चाहती थी l अवश्य, मूसा ने आज्ञा मानकर परमेश्वर का अनुसरण किया, किन्तु इसके पूर्व उसके पास अनेक प्रश्न थे और निवेदन भी कि उसके बदले किसी और को भेजा जाए (पद.11-13; 4:13) l
मूसा के उदाहरण से, हम महसूस कर सकते हैं कि स्पष्ट बुलाहट मिलने पर हमें क्या नहीं करना चाहिए l इसके बदले हमें शिष्यों के समान बनने का प्रयास करना चाहिए l जब यीशु ने उन्हें बुलाया, उन्होंने सब कुछ छोड़कर उसके पीछे हो लिए (मत्ती 4:20-22; लुका 5:28) l भय स्वाभाविक है, किन्तु हम परमेश्वर की योजना पर भरोसा कर सकते हैं l
आज भी घर से बहुत दूर रहना कठिन है l किन्तु जब मैं परमेश्वर को निरंतर खोजती रहती हूँ, वह मेरे लिए द्वार खोलता है और मुझे निश्चय देता है कि मैं सही स्थान पर हूँ l
जब हमें हमारे आराम के स्थान से बाहर निकाला जाता है, हम या तो मूसा की तरह अनिच्छुक होंगे, अथवा शिष्यों की तरह इच्छुक, जिन्होंने यीशु का अनुसरण हर जगह किया l कभी-कभी इसका अर्थ अपने आरामदायक जीवन को छोड़कर हज़ारों मील दूर रहना होता है l लेकिन चाहे जितनी दूर भी हो, यीशु के पीछे चलना सार्थक है l
हमें इसलिए नहीं बुलाया गया है कि हमारा जीवन आरामदायक हो l