एक माँ की कल्पना करें जो बच्चे से प्यार कर रही हो, उसकी नाक पर धीरे-धीरे ऊँगली फेर रही हो और धीमे से उससे बोल रही हो –“शांत रहो, खामोश रहो l” यह व्यवहार और सरल शब्द छोटे व्याकुल बच्चों की निराशा, अशांति, या पीड़ा में उनको आराम देने और शांत करने के लिए हैं l ऐसे नज़ारे विश्वव्यापी और अनंत है और हममें से अधिकतर लोग ऐसे प्रेमी अभिव्यक्तियों के देने या लेने वाले रहे हैं l भजन 131:2 पर विचार करते समय, यही तस्वीर मेरे दिमाग में आती है l
इस भजन की भाषा और शैली यह बताती है कि लेखक, दाऊद, ने कुछ ऐसा अनुभव किया था जिससे गंभीर विचार उत्पन्न हुआ था l क्या आपने निराशा, पराजय, या विफलता का अनुभव किया है जिसने विचारशील, विचारात्मक प्रार्थना को प्रेरित करता है? आप क्या करते हैं जब जीवन की परिस्थितियाँ आपको विनम्र बनाती है? जव आप किसी जांच में असफल होते हैं या आपकी नौकरी छूट जाती है या आप किसी सम्बन्ध के टूटने का अनुभव करते हैं? दाऊद ने अपने हृदय को प्रभु के सामने खोल दिया और इस क्रम में इमानदारी से अपने मन को टटोला और खोज किया (भजन 131:1) l अपनी परिस्थितियों के साथ मेल करने का प्रयास करते हुए, उसने एक छोटे बच्चे की तरह जो केवल अपनी माँ के निकट रहकर संतुष्टि पाता है, वह भी तृप्त हुआ (पद.2) l
जीवन की परिस्थितियाँ बदलती हैं और हम विनम्र किये जाते हैं l इसके बावजूद हम यह जानकार आशा रख सकते हैं और संतोष प्राप्त कर सकते हैं कि एक है जिसने हमेशा साथ रहने का और कभी नहीं छोड़ने का वादा किया है l हम उस पर सम्पूर्ण भरोसा रख सकते हैं l
संतुष्टि केवल मसीह में ही मिलता है l