एक मनोचिकित्सक के सलाह स्तम्भ में, उन्होंने ब्रेन्डा नामक एक पाठक को जवाब दिया, जिसने अफ़सोस जताया था कि उसकी महत्वाकांक्षी गतिविधियों ने उसे असंतुष्ट कर दिया था l मनोचिकित्सक के शब्द स्पष्टवादी/रूखे(blunt) थे l मनुष्य को खुश रहने के लिए नहीं बनाया गया है, उन्होंने कहा, “केवल जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए l” हम संतोष की “चिढ़ाने वाली और मायावी तितली” का पीछा करने के लिए अभिशप्त हैं, उन्होंने कहा, “हमेशा इसे पकड़ने के लिए नहींl” 

मुझे आश्चर्य है कि मनोचिकित्सक के शून्यवादी/नकारवादी(nihilistic) शब्दों को पढ़कर ब्रेन्डा को कैसा लगा होगा और अगर उसने इसके बजाय भजन 131 पढ़ा होता तो उसे कितना अलग आभास होताl अपने शब्दों में, दाऊद हमें संतोष पाने के तरीके पर एक निर्देशित विचार देता है l वह विनम्रता की मुद्रा में आरम्भ करता है,अपनी राजसी महत्वकांक्षाओं को एक तरफ रख देता है, और जबकि जीवन के बड़े सवालों से जूझना महत्वपूर्ण है, वह उन्हें भी एक तरफ रख देता है (पद.1) तब वह परमेश्वर के सामने अपने हृदय को शांत करता है (पद.2) भविष्य को उसके हाथों में सौंपता है (पद.3) l परिणाम खुबसूरत है : वह कहता है, “जैसा दूध छुड़ाया हुआ लड़का अपनी माँ की गोद में रहता है, वैसे ही . . . मेरा मन भी रहता है” (पद.2) 

हमारी तरह एक टूटी-फूटी दुनिया में, संतोष कई बार हाथ न आने वाला लगेगा l फिलिप्पियों 4:11-13 में प्रेरित पौलुस ने कहा कि संतोष सीखने की चीज़ है l लेकिन अगर हम मानते हैं कि हम केवल “जीवित रहने और पुनरुत्पादन” के लिए रचे गए हैं, तो संतोष निश्चित रूप से एक न पकड़ने वाली तितली ही होगी l दाऊद हमें एक और तरीका दिखाता है: ईश्वर की उपस्थिति में चुपचाप आराम करने के द्वारा संतोष प्राप्त करना l