“तुम वह नहीं हो जिसकी मैंने उम्मीद की थी । मैंने सोचा था कि मैं तुमसे नफरत करूंगा, लेकिन मैं नहीं करता।” युवक के शब्द कठोर लग रहे थे, लेकिन वे वास्तव में दयालु होने का एक प्रयास था। मैं विदेश में उनके देश में पढ़ रहा था, एक ऐसा देश जिसका दशकों पहले मेरे देश के साथ युद्ध हुआ था। हम कक्षा में एक सामूहिक चर्चा में एक साथ भाग ले रहे थे, और मैंने देखा कि वह बहुत पृथक लग रहा था। जब मैंने पूछा कि क्या मैंने उसे किसी तरह नाराज किया है, तो उसने जवाब दिया, “बिल्कुल नहीं। और यही बात है। उस युद्ध में मेरे दादाजी मारे गये थे इसलिए मुझे आपके लोगों और आपके देश से नफरत करता था। लेकिन अब मैं देखता हूं कि हमारे बीच कितनी समानताएं हैं, और यह मुझे आश्चर्यचकित करता है। मैं यह नहीं देख सकता कि हम दोस्त क्यों नहीं बन सकते।”

पूर्वधारणा मानव जाति जैसा ही पुराना है । दो हज़ार साल पहले, जब नतनएल ने पहली बार यीशु के नासरत में रहने के बारे में सुना, तो उसकी पूर्वधारणा स्पष्ट हो गयी : उसने पूछा, “क्या कोई अच्छी वस्तु भी नासरत से निकल सकती है?” (यूहन्ना 1:46) । नतनएल यीशु की तरह गलील के क्षेत्र में रहता था। संभवतः उसने सोचा था कि परमेश्वर का मसीहा किसी अन्य स्थान से आएगा; यहाँ तक कि अन्य गलीली लोगों ने भी नासरत को नीची दृष्टि से देखा क्योंकि यह एक साधारण छोटा सा गाँव लग रहा था।

इतना तो स्पष्ट है, नतनएल के प्रतिक्रिया ने यीशु को उससे प्रेम करने से नहीं रोका, और जब वह यीशु का शिष्य बना, वह बदल गया। नतनएल ने बाद में घोषणा किया “तू परमेश्‍वर का पुत्र हे;” (पद.49)। ऐसा कोई पूर्वधारणा नहीं है जो परमेश्वर के परिवर्तनकारी प्रेम के विरुद्ध खड़ा हो सके।