मैंने खुद से कहा, जब तक मैं अपना मुंह बंद रखूंगी, मैं कुछ भी गलत नहीं करूंगी। एक सहकर्मी द्वारा कही गई बात की गलत व्याख्या करने के बाद मैं बाहरी तौर पर उसके प्रति अपना गुस्सा दबा रही थी ।   चूँकि हमें हर दिन एक-दूसरे से मिलना होता था, इसलिए मैंने अपनी बातचीत को केवल उसी तक सीमित रखने का निर्णय लिया जो आवश्यक था (और अपने मौन व्यवहार से बदला लेती रही) । शांत आचरण गलत कैसे हो सकता है?

यीशु ने कहा कि पाप हृदय से शुरू होता है (मत्ती 15:18−20)। मेरी चुप्पी ने लोगों को मूर्ख बनाया होगा कि सब कुछ ठीक है, परन्तु परमेश्वर मूर्ख नहीं बने। वह जानते थे कि मैं क्रोध से भरा हृदय छिपा रही हूँ। मैं उन फरीसियों के समान थी जो होठों से तो परमेश्वर का आदर करते थे, परन्तु उनके हृदय परमेश्वर से दूर थे (पद 8)। भले ही मेरा बाहरी रूप मेरी सच्ची भावनाओं को नहीं दर्शाता था, लेकिन मेरे अंदर कड़वाहट पनप रही थी। अपने स्वर्गीय पिता के साथ जो आनंद और निकटता मुझे हमेशा महसूस होती थी, वह ख़त्म हो गई। पाप को पालना और छुपाना ..छुपाना ‘ही  यह सब सब उत्पन्न करता है। 

परमेश्वर की कृपा से, मैंने अपने सहकर्मी को बताया कि मैं कैसा महसूस कर रही हूं और माफी मांगी। उसने बड़ी दयालुता से मुझे माफ कर दिया और अंततः हम अच्छे मित्र बन गये। यीशु कहते हैं, “बुरे विचार मन से निकलते हैं” (पद 19)। हमारे हृदय की स्थिति मायने रखती है क्योंकि वहाँ रहने वाली बुराई हमारे जीवन में प्रवेश कर सकती है। हमारा बाहरी और आंतरिक दोनों ही मायने रखता है।