मेज पर दो चेहरे उभरे हुए थे—एक तेज़ क्रोध से बिगड़ा था, दूसरा भावनात्मक दर्द से विकृत था l पुराने मित्रों के पुनःमिलन में अभी-अभी चीख-पुकार मच गयी थी, जिसमें एक महिला दूसरी महिला को उसके विश्वासों के लिए डांट रही थी l विवाद तब तक जारी रहा जब तक कि पहली महिला रेस्टोरेंट से बाहर नहीं चली गयी, जिससे दूसरी हिल गयी और अपमानित हुयी l 

क्या हम सचमुच ऐसे समय में रह रहे हैं जब विचारों में मतभेद बर्दास्त नहीं किया जा सकता? सिर्फ इसलिए कि दो लोग सहमत नहीं हो सकते इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें से कोई भी बुरा है l जो वाणी कठोर या अडिग होती है वह कभी भी प्रेरक नहीं होती है, और मजबूत विचारों को शालीनता या करुणा पर हावी नहीं होना चाहिए l 

रोमियों 12 “परस्पर आदर [कैसे करें]” और अन्य लोगों के साथ “एक सा मन [कैसे रखें] के लिए एक मार्गदर्शक है (पद.10,16) l यीशु ने संकेत दिया कि उस पर विश्वास करने वालों की पहचान करने वाली विशेषता एक दूसरे के प्रति हमारा प्रेम है (यूहन्ना 13:35) l जबकि अभिमान और क्रोध हमें आसानी से पटरी से उतार सकते हैं, वे उस प्रेम के बिल्कुल विपरीत हैं जो ईश्वर चाहता है कि हम दूसरों को दिखाएँ l 

जब हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण खो देते हैं तो दूसरों को दोष न देना एक चुनौती है, लेकिन ये शब्द “जहां तक हो सके, तुम भरसक सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो” हमें दिखाते हैं कि ऐसा जीवन जीने की जिम्मेदारी जो मसीह के चरित्र को प्रतिबिंबित करती है, किसी और तक स्थानांतरित नहीं हो सकती है (रोमियों 12:18) l यह हममें से हर एक के साथ निहित है जो उसका नाम धारण करता है l