अपने स्थानीय सुपरमार्केट में प्रदर्शित चटाई/doormat को देखते हुए, मैंने उनकी सतहों पर अंकित संदेशों को देखा l “हेलो!/Hello!” “ओ/O के साथ “घर/Home” l और जो अधिक परिचित था, मैंने उसे चुना, “स्वागत है/Welcome l” इसे घर पर रखकर मैंने अपने हृदय की जांच की l क्या मेरा घर वास्तव में उस तरह का स्वागत कर रहा था जैसा ईश्वर चाहता है? संकट या पारिवारिक अशांति में फंसे बच्चे का? आवश्यकतामंद पड़ोसी शहर के बाहर से परिवार का कोई सदस्य जिसने अचानक ही फोन कर दिया?
मरकुस 9 में, यीशु रूपांतरण के पर्वत से आगे बढ़ता है जहां पतरस, याकूब और यूहन्ना उसकी पवित्र उपस्थिति में विस्मय में खड़े थे (पद.1-13), एक पिता के साथ एक दुष्टात्माग्रस्त लड़के को ठीक करने के लिए जो आशा खो चुका था (पद.14-29) l तब यीशु ने अपने शिष्यों को अपने आने वाली मृत्यु के विषय में व्यक्तिगत शिक्षा दी (पद.30-३२) l वे उसकी बात से बूरी तरह चूक गए (पद.33-34) l जबाब में, यीशु ने एक बच्चे को अपने गोद में उठाया और कहा, “जो कोई मेरे नाम से ऐसे बालकों में से किसी एक को भी ग्रहण करता है, वह मुझे ग्रहण करता है; और जो कोई मुझे ग्रहण करता, वह मुझे नहीं, वरन् मेरे भेजनेवाले को ग्रहण करता है” (पद.37) l यहाँ स्वागत शब्द का अर्थ अतिथि के रूप में स्वागत करना और स्वीकार करना है l यीशु चाहते हैं कि उनके शिष्य सभी का स्वागत करें, यहाँ तक कि कम महत्व वाले और असुविधाजनक लोगों का भी, मानो हम उनका स्वागत कर रहे हों l
मैंने अपने स्वागत चटाई/mat के बारे में सोचा और विचारा कि मैं दूसरों तक उसका प्रेम कैसे बढ़ाती हूँ l इसका आरम्भ यीशु को एक बहुमूल्य अतिथि के रूप में स्वागत करने से होता है l क्या मैं उसे अपने नेतृत्व करने की अनुमति दूंगी, दूसरों का उस तरह से स्वागत करते हुए जिस तरह वह चाहता है?
अपने यीशु का अपने ह्रदय में कब और कैसे स्वागत किया? इसका आपके दूसरों के स्वागत करने के तरीके पर क्या प्रभाव पड़ना चाहिए?
प्रिय यीशु, कृपया अपना घर मुझमें बनाए जैसे मैं आप में अपना घर बनाता हूँ l