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Articles by आर्थर जैक्सन

शब्दों का महत्व

विमान उड़ने से पहले वह युवक बेचैन था। वह आंखें बंद कर के शांत होने के लिए लंबी सांसें ले रहा था। विमान उड़ते ही वह इधर-उधर होने लगा। उसका ध्यान बंटाने के लिए एक बुजुर्ग स्त्री उसके बाँह पर हाथ रखकर बातचीत करने लगी। “तुम्हारा नाम क्या है? कहां से आए हो? हमें कुछ नहीं होगा। तुम अच्छा कर रहे हो”। ऐसी बातें करने लगी। वह उसे नजर-अंदाज कर सकती थी। लेकिन उसने उससे बातचीत करने को चुना। छोटी बातें। 3 घंटे बाद विमान उतरने पर उसने कहा, “मेरी मदद करने के लिए आपका बहुत धन्यवाद”!

कृपा के ऐसे सुन्दर चित्र मुश्किल से देखने को मिलते हैं। हममें से अनेकों के लिए दया स्वाभाविक रूप से नहीं आती। पौलुस ने कहा कि “एक दूसरे पर कृपालु और करुणामय हो” (इफिसियों 4:32) पर  वह यह नहीं कह रहा था कि यह हम पर निर्भर करता है। यीशु में विश्वास करने द्वारा हमारे नए जीवन के बाद से हमारे अन्दर पवित्र-आत्मा ने बदलाव का कार्य शुरू कर दिया है। कृपा पवित्र-आत्मा का निरंतर चलने वाला कार्य है, जो हमें मन के आत्मिक स्वभाव में नया बनाती है (पद 23)।

करुणा का परमेश्वर हमारे दिल में कार्य करता है, जिससे हम दूसरों से प्रोत्साहन भरे शब्द कह कर उनके जीवन को छू सकें।

प्रत्येक व्यक्ति के लिए कम्बल

लाइनस वैन पेल्ट,  पीनट्स कार्टून के मुख्य पात्र है। विनोदपूर्ण और बुद्धिमान परन्तु असुरक्षित,  लाइनस के पास सदा एक सुरक्षा कम्बल रहता था। हम इससे परिचित हैं। हमारे भी अपने डर और अपनी असुरक्षाएं होती हैं।

जब यीशु पकड़ लिए गए, तब पतरस ने महायाजक के आंगन तक प्रभु का पीछा करके साहस का प्रदर्शन तो किया। परन्तु भयभीत होकर अपनी पहचान छुपाने के लिए झूठ बोला (यूहन्ना 18:15–26) उसने वह लज्जात्मक शब्द कहे जो उसके प्रभु का इन्कार करते थे। परन्तु यीशु ने उसे प्रेम करना नहीं छोड़ा और अंततः उसे सम्भाल लिया (यूहन्ना 21:15–19 देखें)। इसी पतरस ने 1 पतरस 4:8 में हमारे संबंधों में प्रेम के महत्व पर इन शब्दों के साथ जोर दिया, "सब से ऊपर"। "एक-दूसरे को प्यार करें, क्योंकि प्रेम कई पापों को ढांप देता है"।

आपको कभी वैसे "कम्बल" की आवश्यकता हुई है? मुझे हुई! अपराध और शर्म के कारण "ढांपे" जाने की मुझे आवश्यकता थी जैसे यीशु ने लज्जा-भरे लोगों को ढांप दिया था।

यीशु के अनुयायियों के लिए, प्रेम वह कम्बल है जिसे दूसरों को आराम और उद्धार पाने के लिए अनुग्रहपूर्वक और साहसपूर्वक दिया जाना चाहिए। ऐसे महान प्रेम को प्राप्त करने वालों के रूप में, हम उसी प्रेम को देने वाले बनें।

मेरी मदद!

प्रसिद्ध भजन मण्डली, ब्रुकलीन टैबरनैकल ने कई दशकों से आत्म-विभोर करने वाले  भजनों से सैंकड़ों लोगों को आशीषित किया है। उनकी रिकॉर्डिंग में भजन 121 पर आधारित "मेरी मदद" एक उदाहरण है।

भजन 121 का आरम्भ उस परमेश्वर के प्रति विश्वास के व्यक्तिगत अंगीकार से होता है जो सब बातों का रचयिता, और मदद का स्रोत है (1-2)। स्थिरता (3), दिन-रात की परवाह (3-4), और उपस्थिति और रक्षा (5-6), और हर बुराई से बचाव (7-8)।

शात्रों से प्रेरित होकर परमेश्वर के लोगों ने सदियों से अपने गीतों में परमेश्वर को  "सहायता" का स्रोत बताया है। महान सुधारक मार्टिन लूथर ने लिखा, "परमेश्वर हमारा एक मजबूत गढ़ है, एक दीवार जो कभी नहीं ढहती; हमारे दोषपूर्ण और नश्वर होने के वावजूद वह हमारी सदा मिलने वाली सहायता हैं"।

क्या आप अकेला, छोड़ा, निष्कासित, भ्रमित महसूस करते हैं? भजन 121 के शब्दों पर मनन करें। अपनी आत्मा में विश्वास और साहस भर जाने दें। आप अकेले नहीं हैं, इसलिए जीवन आप ही जीने का प्रयत्न ना करें। वरन् परमेश्वर की सांसारिक और अनन्त काल की परवाह में आनंदित हों जिसे प्रभु यीशु मसीह के जीवन, मृत्यु, पुनः जी उठने, और स्वर्गारोहण में प्रदर्शित किया गया है। और आगे जो भी हो, उसे उनकी सहायता से ग्रहण करें।

यह कौन है?

“अपने डेस्क पर से सब कुछ हटाकर, एक कागज़ का टुकड़ा और पेंसिल निकालें l” जब मैं विद्यार्थी था ये भयानक शब्द दर्शाते थे कि “परीक्षा का समय” आ गया था l

मरकुस 4 में, हम पढ़ते हैं कि यीशु का दिन झील के किनारे शिक्षा से आरंभ होकर (पद.1), झील में परीक्षा के साथ अंत हुआ (पद.35) l शिक्षण मंच के रूप में प्रयुक्त नाव यीशु और उसके चेलों को झील के उस पार ले जाने के लिए की गयी l यात्रा के दौरान (जब यीशु थककर नाव के पिछले भाग में सो रहा था), शिष्यों ने आंधी का सामना किया (पद.37) l भीगे हुए शिष्यों ने इन शब्दों से यीशु को जगाया, “हे गुरु, क्या तुझे चिंता नहीं कि हम नष्ट हुए जाते हैं?” (पद.38) l तब ऐसा हुआ l वही जिसने दिन के आरंभ में “सुनने!” के लिए  भीड़ का आह्वान किया था, प्रकृति की आंधी को एक सरल, ताकतवर आज्ञा दी-“शांत रह, और थम जा!” (पद.39) l

आंधी ने आज्ञा मान ली और भयभीत शिष्यों ने अपने आश्चर्य को इन शब्दों में व्यक्त किया, “यह कौन है...?”(पद.41) l प्रश्न अच्छा था किन्तु शिष्यों को ईमानदारी से और सही रूप में इस नतीजे पर पहुँचने में समय लगने वाला था कि यीशु परमेश्वर का पुत्र है l खरा, ईमानदार, सच्चा प्रश्न और अनुभव आज भी लोगों को उसी निर्णय तक पहुँचाते हैं l वह सुनने के लिए शिक्षक से बढ़कर है l वह उपासना के योग्य परमेश्वर है l