शल्यचिकित्सा प्रतीक्षालय में बैठा मैं सोच रहा था । हाल ही में यहाँ पर हमें घबरानेवाला समाचार मिला था कि मेरा एकलौता छोटे भाई “मस्तिष्क मृत“ था ।
आज, गम्भीर शल्यचिकित्सा प्रक्रिया से निकल रही अपनी पत्नी के समाचार का इन्ताजार करते हुए, मैंने उसे एक लम्बा पत्र लिखा । तब, अशान्ति और बेपरवाह बच्चों के बीच, मैंने परमेश्वर की शान्त ध्वनि सुननी चाही ।
अचानक, खबर आया! शल्यचिकित्सक मुझसे मिलना चाहता है । वहाँ, मेज पर, टिशू के दो डिब्बे कठोर, वास्तविक वाक्यांशों के लिए थे जैसे मैंने अपने भाई की मृत्यु के समय सुनी थी- “मस्तिष्क मृत” और “हम कुछ नहीं कर सकते ।”
इस तरह के दुःख अथवा अनिश्चितता में, भजनों में जाना ही स्वभाविक है । भजन 31 अत्यधिक सहन पश्चात् दाऊद के हृदय की पुकार थी, “मेरा जीवन शोक के मारे” घट चला है(पद.10) । समस्त दुःख ने उसे मित्रों एवं पड़ोसियों से अलग किया(पद.11) ।
किन्तु दाऊद एक सच्चे परमेश्वर पर दृढ़ भरोसेमन्द था । “हे यहोवा, मैंने तो तुझी पर भरोसा रखा है, …. मेरे दिन तेरे हाथ में हैं”(पद.14-15) । उसका विलाप गुंजायमान उत्साह एवं आशा से समाप्त हुआ। “हे यहोवा पर आशा रखनेवालों, …. तुम्हारे हृदय दृढ़ रहें” (पद.24) ।
शल्यचिकित्सक ने कहा, मेरी पत्नी पूर्ण ठीक हो सकती थी । अवश्य ही हम चिन्तामुक्त और धन्यवादित थे! किन्तु यदि वह “ठीक” नहीं भी होती, हमारा समय परमेश्वर के सबल हाथों में है ।