वर्ष 1780 और रोबर्ट रेक्स लंडन के अपने पड़ोस में निर्धन, अशिक्षित बच्चों के लिए चिन्तित था। उसने देखा कि ये बच्चे असहाय हैं, इसलिए वह अन्तर लाने के लिए निकल पड़ा ।

उसने कुछ महिलाओं को पारिश्रमिक देकर उन बच्चों के लिए रविवार के दिन स्कूल आरम्भ किया । बाइबिल को पाठ्यपुस्तक के तौर पर उपयोग कर, शिक्षिकाओं ने लंडन के अति निर्धन बच्चों को पठन सिखाया और बाइबिल की बुद्धि से उनका परिचय कराया। जल्द ही करीब 100 बच्चे इन कक्षाओं में आने लगे और सुरक्षित, स्वच्छ पर्यावरण में दोपहर के भोजन का आनन्द लेने लगे। ये “सण्डे स्कूल” जिन्हें जल्द ही इस नाम से पुकारा जाने लगा, ने हजारों लड़के-लड़कियों के जीवनों को स्पर्श किया । 1831 तक, ग्रेट ब्रिटिन में सण्डे स्कूल ने लाखों बच्चों को छूआ-केवल इसलिए क्योंकि एक व्यक्ति ने इस सत्य को समझ लिया था: धर्मी पुरुष कंगालों के मुकद्दमे में मन लगाता है“(नीति.29:7)।

यह रहस्य नहीं कि यीशु संघर्ष करनेवालों की अत्यधिक चिन्ता करता है । मत्ती 25 में, वह कहता है कि मसीह के लोग भूखों को भोजन, प्यासों को जल, और बेघर को घर, और नग्न को वस्त्र, और बीमारों और कैदियों को आराम दें(पद. 35-36)।

साक्षी देते समय कि मसीह हमारे हृदयों में है, परमेश्वर के हृदय में बसनेवालों की चिन्ता करके हम अपने करुणामय उद्धारकर्ता का आदर करते हैं ।