एक दोपहर मैं अपने अध्यात्मिक सलाहकार मित्र से परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेने पर चर्चा कर रहा था(निर.20:7) l हमारी सोच हो सकती है यह केवल परमेश्वर का नाम अपशब्द की तरह, बिना गंभीरता से अथवा अनादर से लेने की बात है l किन्तु मेरे सलाहकार ने मुझे चुनौति दी कि हम किस तरह उसके नाम को अनादर देते हैं l
जब हम दूसरों की सलाह का इनकार कर कहते हैं, “परमेश्वर ने मुझे इस तरह करने को कहा है,” मैं उसके नाम को व्यर्थ लेता हूँ यदि इससे केवल मेरी इच्छापूर्ति होती है l
जब मैं अपने विचार के समर्थन में जिसे मैं सच दिखाना चाहता हूँ सन्दर्भ के बाहर वचन का उपयोग करता हूँ, या जब मैं वचन से असावधानीपूर्वक शिक्षण, लेखन, अथवा उपदेश देता हूँ, मैं उसका नाम व्यर्थ लेता हूँ l
इस पर लेखक जॉन पाइपर चिंतन प्रस्तुत करते हैं : “विचार यह है …. ‘नाम को खाली न करें’ …. परमेश्वर के गौरव और महिमा को कम न करें l” पाइपर कहते हैं, हम उसके नाम को व्यर्थ लेते हैं, जब हमारे शब्दों से “परमेश्वर की विशेषता कम होती है l”
मेरे मित्र ने मुझे परमेश्वर के नाम का आदर करने और उसके वचन पर ध्यान देने और सावधानीपूर्वक सही तौर से उसका उपयोग करने की चुनौति दी l इससे कुछ भी कम उसका अनादर है l