मैं प्रेक्षागृह में बैठे हुए, पासवान की ओर ध्यान से देखता रहा l मेरी मुद्रा बता रही थी मैं उनकी हर बात पर ध्यान दे रहा था l अचानक मैंने सबको हँसते और ताली बजाते सुना l चौंककर, इधर-उधर देखा l प्रचारक ने ज़रूर कुछ हास्यकर कहा था, जो मैंने नहीं सुनी l मैं ध्यान दे रहा था, किन्तु वास्तव में मेरा ध्यान दूर था l
जो बोला जा रहा है उसे सुनना संभव है, किन्तु ध्यान नहीं देना, देखना किन्तु गौर न करना, उपस्थित रहना फिर भी अनुपस्थित l ऐसी स्थिति में, महत्वपूर्ण सन्देश छूट सकते हैं l
एज्रा द्वारा यहूदा के लोगों को परमेश्वर का निर्देश सुनाते समय, “लोग व्यवस्था की पुस्तक पर कान लगाए रहे” (नहे. (8:3) l वर्णन के प्रति ध्यान समझ उत्पन्न की (पद.8), जो पश्चाताप और जागृति में परिणित हुई l यरूशलेम में विश्वासियों का सताव आरंभ होने के बाद (प्रेरितों 8:1), सामरिया में एक और स्थिति में, फिलिप्पुस, सामरियों तक पहुंचा l भीड़ ने आश्चर्यजनक चिन्हों पर ही केवल ध्यान नहीं दिया, किन्तु उन्होंने “सुनकर … एक चित्त होकर मन लगाया” (पद.6) l “और उस नगर में बड़ा आनंद छा गया (पद.8) l
मन एक अस्थिर अनुभवी होकर अपने निकट बहुत सारे उत्तेजनाओं को खो सकता है l उन शब्दों से अधिक ध्यान किसी को नहीं चाहिए जो हमारे स्वर्गिक पिता के आनंद और आश्चर्य प्राप्ति में हमारी सहायता करते हैं l
शब्दों को ग्रहण करने में दो भाग हैं : मस्तिष्क का ध्यान और इच्छा की निश्चयता l
विलियम एम्स