1929 के एक शनिवार संध्या अखबार के साक्षात्कार में, अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा, “बचपन में मैं बाइबिल और तालमूद(यहूदी धर्म साहित्य) दोनों ही की शिक्षा प्राप्त की, किन्तु मैं नासरी . . . . के प्रकाशमान रूप द्वारा सम्मोहित हूँ l कोई भी यीशु की उपस्थिति की वास्तविकता अनुभव किये बगैर सुसमाचारों को नहीं पढ़ सकता l उसका व्यक्तित्व प्रत्येक शब्द में धड़कती है l ऐसे जीवन में कोई मिथक नहीं है l”
नया नियम हमें यीशु के देशवासियों का उदहारण देता है जो उसके विषय कुछ विशेष पाते थे l जब यीशु ने अपने अनुयायियों से पुछा, “लोग मनुष्य के पुत्र को क्या कहते हैं?” उनके उत्तर थे कि कुछ यूहन्ना बप्तिस्मा देनेवाला, दूसरे कहते हैं वह एलिय्याह है, और अन्य उसे यिर्मयाह अथवा कोई और नबी (मत्ती 16:14) l इस्राएल के महान नबियों के साथ गिनती वास्तव में एक सम्मान था, किन्तु यीशु को सम्मान नहीं चाहिए था l वह उनकी समझ देखना चाहता था और विश्वास खोज रहा था l इसलिए उसने दूसरा प्रश्न किया : “परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो? (16:15) l
पतरस की घोषणा ने पूरी तरह यीशु की पहचान बता दी: “तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है” (पद.16) l
यीशु चाहता है कि हम उसको और उसके बचानेवाले प्रेम को जाने l इसलिए हममें से प्रत्येक को इस प्रश्न का उत्तर देना ही होगा, “आप के लिए यीशु कौन है?”
यीशु की पहचान अनंतता के प्रश्न का केंद्र है l