सामर्थी शिशु
मैंने पहली बार उसे देखा, और रो दिया l वह पालने में सो रहा एक नवजात शिशु ही दिखाई दे रहा था l किन्तु हम जानते थे कि वह कभी नहीं जागेगा l जब तक कि वह यीशु की बाहों में न हो l
वह बहुत महीनों तक जीवित रहा l तब उसकी माँ ने हृदय को अत्यंत कष्ट पहूंचानेवाली ई-मेल भेजी l उसने “उस अत्यंत दुःख के विषय लिखा जो किसी के अन्दर शोक उत्पन्न करता है l” तब वह बोली, “परमेश्वर ने उस छोटे जीवन द्वारा अपने प्रेम के कार्य को कितनी गहराई से हमारे हृदयों में डाला था!” वह कितना सामर्थी जीवन था l”
सामर्थी? वह ऐसा कैसे कह सकती थी?
उस परिवार के इस छोटे प्रिय बच्चे ने उनको और हमको दर्शा दिया था कि हमें सब कुछ के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहना है l विशेषकर जब स्थिति अत्यंत ही ख़राब हो! कठिन किन्तु तसल्ली देनेवाला सच यह है कि परमेश्वर हमारे दुःख में हमसे मुलाकात करता है l एक बेटे के खोने का दर्द उसे मालूम है l
हमारे गहरे दुःख में, हम दाऊद के गीतों की ओर ध्यान देते हैं क्योंकि वह अपने दुःख में लिखता है l “मैं कब तक अपने मन ही मन में युक्तियाँ करता रहूँ, और दिन भर अपने हृदय में दुखित रहा करूँ?” उसने पूछा (भजन 13:2) l “मेरी आँखों में ज्योति आने दे, नहीं तो मुझे मृत्यु की नींद आ जाएगी” (पद.3) l फिर भी दाऊद अपने बड़े प्रश्नों को परमेश्वर को सौंप सकता था l “परन्तु मैंने तो तेरी करुणा पर भरोसा रखा है; मेरा हृदय तेरे उद्धार से मगन होगा” (पद.5) l
केवल परमेश्वर ही हमारे सबसे दुखद समयों को सर्वश्रेष्ठ महत्त्व दे सकता है l
गुमनाम जीवन
जेन योलन का लेख “वर्किंग अप टू एनॉन”(गुमनाम) के मेरी प्रति जिसे मैंने बहुत बार पढ़ा बहुत वर्ष पूर्व द राइटर पत्रिका से निकाली गयी थी l वह कहती है, “सर्वश्रेष्ठ लेखक वे हैं जो वास्तव में, अन्दर से, गुमनाम रहना चाहते हैं l बतायी गई कहानी महत्वपूर्ण है, कहानी बतानेवाला नहीं l
हम यीशु, उद्धारकर्ता की कहानी बताते हैं, जिसने हमारे लिए अपना प्राण दिया l दूसरे विश्वासियों के साथ हम उसके लिए जीवन बिताते हैं और दूसरों के साथ उसका प्रेम बाँटते हैं l
रोमियों 12:3-21 दीनता और प्रेम के आचरण का वर्णन करता है जो यीशु के अनुयायिओं के रूप में हमारे परस्पर संबंधों में फैला होना चाहिए l “जैसा समझना चाहिए उससे बढ़कर कोई भी अपने आप को न समझे; पर जैसा परमेश्वर ने हर जगह हर एक को विश्वास परिमाण के अनुसार बाँट दिया है ... भाईचारे के प्रेम से एक दूसरे से स्नेह रखो; परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ़ चलो” (पद.3, 10)
हमारी पिछली उपलब्धियों में घमंड करना दूसरों के वरदान के प्रति हमें अँधा कर सकता है l अभिमान हमारे भविष्य को गन्दा कर सकता है l
यूहन्ना बप्तिस्मादाता, जिसका उद्देश्य यीशु का मार्ग तैयार करना था, ने कहा, “वह बढ़े और मैं घटूँ” (यूहन्ना 3:30) l
हम सब के लिए यह सिद्धांत अच्छा है l
यह कौन है?
“अपने डेस्क पर से सब कुछ हटाकर, एक कागज़ का टुकड़ा और पेंसिल निकालें l” जब मैं विद्यार्थी था ये भयानक शब्द दर्शाते थे कि “परीक्षा का समय” आ गया था l
मरकुस 4 में, हम पढ़ते हैं कि यीशु का दिन झील के किनारे शिक्षा से आरंभ होकर (पद.1), झील में परीक्षा के साथ अंत हुआ (पद.35) l शिक्षण मंच के रूप में प्रयुक्त नाव यीशु और उसके चेलों को झील के उस पार ले जाने के लिए की गयी l यात्रा के दौरान (जब यीशु थककर नाव के पिछले भाग में सो रहा था), शिष्यों ने आंधी का सामना किया (पद.37) l भीगे हुए शिष्यों ने इन शब्दों से यीशु को जगाया, “हे गुरु, क्या तुझे चिंता नहीं कि हम नष्ट हुए जाते हैं?” (पद.38) l तब ऐसा हुआ l वही जिसने दिन के आरंभ में “सुनने!” के लिए भीड़ का आह्वान किया था, प्रकृति की आंधी को एक सरल, ताकतवर आज्ञा दी-“शांत रह, और थम जा!” (पद.39) l
आंधी ने आज्ञा मान ली और भयभीत शिष्यों ने अपने आश्चर्य को इन शब्दों में व्यक्त किया, “यह कौन है...?”(पद.41) l प्रश्न अच्छा था किन्तु शिष्यों को ईमानदारी से और सही रूप में इस नतीजे पर पहुँचने में समय लगने वाला था कि यीशु परमेश्वर का पुत्र है l खरा, ईमानदार, सच्चा प्रश्न और अनुभव आज भी लोगों को उसी निर्णय तक पहुँचाते हैं l वह सुनने के लिए शिक्षक से बढ़कर है l वह उपासना के योग्य परमेश्वर है l