उदास विद्यार्थी दुखी होकर बोला, “मैं कर ही नहीं सकता हूँ l” पन्ने पर उसे केवल छोटे अक्षर, कठिन विचार, और बेरहम निर्धारित तिथि दिखाई दे रही थी l उसे अपने शिक्षक की सहायता की ज़रूरत थी l

यीशु का पहाड़ी उपदेश “अपने शत्रु से प्रेम करो” (मत्ती 5:44) पढ़कर हमें भी उसी प्रकार का अनुभव हो सकता है l  क्रोध एक बुरा हत्यारा है (पद.22) कुदृष्टि व्यभिचार के बराबर है (पद.28) l और अगर हम इन मानकों पर जीवन बिताने की हिम्मत करते हैं, तो हमारा सामना इससे होता है : तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गिक पिता सिद्ध है” (पद.48) l

ऑस्वाल्ड चेम्बर्स कहते हैं, “पहाड़ी उपदेश निराशा उत्पन्न करता है” l किन्तु उन्होंने इसे अच्छा पाया, क्योंकि “निराशा के समय हम कंगाल की तरह [यीशु] के पास आकर उसे स्वीकार करना चाहते हैं l”

परमेश्वर अक्सर सहजज्ञान से हटकर कार्य करता है l जिन्हें मालुम है कि वे अपने ऊपर भरोसा करके नहीं कर सकते हैं, वे ही पमेश्वर का अनुग्रह स्वीकार करते हैं l जिस तरह प्रेरित पौलुस कहते हैं, “अपने बुलाए जाने को तो सोचो कि न शरीर के अनुसार बहुत ज्ञानवान . . . परन्तु परमेश्वर ने जगत के मूर्खों को चुन लिया है कि ज्ञानवानों को लजित करे” (1 कुरिन्थियों 1:26-27) l

परमेश्वर की बुद्धिमत्ता में, सिद्ध शिक्षक हमारा उद्धारकर्ता भी है l जब हम विश्वास से उसके पास आते हैं, उसके पवित्र आत्मा के द्वारा हम [उसकी धार्मिकता], और पवित्रता, और छुटकारा” का आनंद लेते हैं (पद.30), और उसके लिए जीने के लिए अनुग्रह और सामर्थ्य भी पाते हैं l इसीलिए वह कह सकता था, “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है” (मत्ती 5:3) l