जब मैं उन्नीस वर्ष की थी, एक कार एक्सीडेंट में मेरी एक निकट सहेली की मृत्यु हो गयी l आगे के सप्ताहों और महीनों में, मैं प्रतिदिन गहरे दुःख से होकर निकली l इतनी छोटी उम्र में किसी को खो देने के दुःख से मेरी दृष्टि धुंधली हो गयी, और कभी-कभी मुझे यह भी पता नहीं होता था कि मेरे आस-पास क्या हो रहा है l दुःख और पीड़ा ने मुझे इतना अँधा कर दिया था कि मैं परमेश्वर को भी नहीं देख पा रही थी l

लूका 24 में, दो शिष्य, यीशु की मृत्यु के बाद भ्रमित और अति दुखित होने के कारण जान न सके कि वे पुनरुत्थित गुरु ही के साथ चल रहें हैं l मार्ग में वह उन्हें शास्त्र से समझाता जा रहा था कि क्यों प्रतिज्ञात उद्धारकर्ता को बलिदान होना और जी उठना अवश्य था l यीशु द्वारा रोटी लेकर तोड़ने के बाद ही उन्होंने उसको पहचाना (पद.30-31) l यद्यपि उसके अनुयायियों ने यीशु की मृत्यु के समय बहुत ही भयंकर मृत्यु का सामना किया था, मृत्यु से जी उठने के द्वारा परमेश्वर ने उनको दिखा दिया कि फिर से आशा कैसे रखी जा सकती है l

हमें भी उन शिष्यों की तरह, घबड़ाहट या गहरा दुःख दबा देता है l किन्तु हम इस सच्चाई में कि यीशु जीवित है और संसार में और हममें कार्य कर रहा है आशा और विश्राम पा सकते हैं l यद्यपि हम अभी भी व्यथा और दुःख का सामना करते हैं, हम यीशु को हमारे दुःख में साथ चलने को बुलाएं l जगत की ज्योति होकर (जूहन्ना 8:12), वह आशा की किरणों से हमारे कोहरे को साफ़ कर देगा l