मेरे एक मित्र की एक फेसबुक की पोस्ट ने बताया कि उसने एक प्रोजेक्ट पूरा कर लिया है। अन्य लोगों ने उसे बधाई दी, परन्तु उसकी पोस्ट ने मेरे दिल में छुरा भोंक दिया। वह प्रोजेक्ट मुझे मिलना था। मुझे एक ओर कर दिया गया, और मुझे नहीं पता कि क्यों।
बेचारा यूसुफ़। उसे परमेश्वर के द्वारा एक ओर कर दिया गया, और वह जानता था कि क्यों। यूसुफ उन दो व्यक्तियों में से एक था, जो यहूदा को बदलने की दौड़ में शामिल थे। शिष्यों नें प्रार्थना की, ““हे प्रभु, तू जो सब के मन जानता है, यह प्रगट कर कि इन दोनों में से तू ने किसको चुना है” (प्रेरितों के काम 1:24)। परमेश्वर ने दूसरे व्यक्ति को चुना। फिर उसने समूह को अपना निर्णय बताया जब “चिट्ठी मत्तियाह के नाम पर निकली” (पद 26)।
जब शिष्यों ने मत्तियाह को बधाई दी, मुझे यूसुफ की चिन्ता होती है। इन्कार किए जाने पर उसने अपने आप को कैसे सम्भाला होगा? क्या उसने ठुकराया हुआ महसूस किया, उसे अपने आप पर तरस आया होगा और उसने अपने आप को दूसरों से दूर कर लिया होगा? या क्या उसने परमेश्वर पर भरोसा किया और आनन्द के साथ सहयोग करता रहा?
मैं जानता हूँ कौन सा विकल्प उत्तम है। और मैं जानता हूँ कि मैं कौन सा विकल्प लूँगा। कितना शर्मनाक है! यदि तुम मुझे नहीं चाहते, तो कोई बात नहीं, ठीक है। देखता हूँ तुम मेरे बिना क्या कर लोगे। हो सकता है वह सही लगे, परन्तु वह स्वार्थ से भरा हुआ है।
पवित्रशास्त्र में दोबारा यूसुफ़ का उल्लेख नहीं किया गया, इसलिए हम नहीं जानते कि उसने कैसी प्रतिक्रिया की। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम कैसी प्रतिक्रिया करते हैं, जब हम चुने नहीं जाते हैं। प्रभु कर कि हमें याद रहे कि हमारी सफलता से अधिक महत्वपूर्ण यीशु का राज्य है, और प्रभु कर कि हम उस भूमिका को आनन्द के साथ निभाएँ, जो वह हमारे लिए चुनता है।
पिता, जब तक मैं आपके राज्य में सेवा कर सकता हूँ, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कैसे और कहाँ।