घाना में बढ़ते हुए एक छोटे लड़के के रूप में, मुझे अपने पिता का हाथ पकड़कर उनके साथ भीड़-भाड़ वाले स्थानों में घूमना पसंद था l वह मेरे पिता और मेरे मित्र दोनों ही थे, क्योंकि मेरी संस्कृति में हाथ पकड़ना सच्ची मित्रता की निशानी है l एक साथ चलते हुए, हम अनेक विषयों पर बातचीत करते थे l जब मैं अकेला महसूस करता था, मैं अपने पिता के साथ तसल्ली पाता था l हमदोनों की संगति को मैं कितना अधिक महत्त्व देता था!

प्रभु यीशु ने अपने अनुयायियों को मित्र कहा, और उनको सच्ची मित्रता के चिन्ह दिखाए l उसने कहा “जैसे पिता ने मुझ से प्रेम रखा, वैसा ही मैं ने तुम से प्रेम रखा [है]” (यूहन्ना 15:9), और उनके लिए अपना प्राण भी दिया (पद.13) l उसने उनको अपने राज्य का अर्थ बताया (पद.15) l उसने उनको सभी बातें सिखायी जो परमेश्वर ने उसे दी थी (पद.15) l और वह उन्हें उसके मिशन में साझेदारी करने का मौका दिया (पद.16) l

जीवन का सहचर होकर, यीशु हमारे साथ चलता है l वह हमारी व्यथा और हमारी इच्छा सुनता है l जब हम अकेले और निराश होते हैं, हमारा मित्र यीशु हमारे साथ संगति रखता है l

और यीशु के साथ हमारी सहचारिता और भी मजबूत होती है जब हम परस्पर प्रेम करते और उसकी आज्ञाओं को मानते हैं (पद.10, 17) l जब हम उसकी आज्ञाओं को मानते हैं, हमारा फल “बना [रहेगा] (पद.16) l

अपने संसार की भीड़ भाड़ वाली गलियों और खतरनाक मार्गों में चलते हुए, हम प्रभु के साहचर्य पर भरोसा कर सकते हैं l यह उसकी मित्रता के चिह्न हैं l