परिदृश्य चित्रकारी कक्षा में, शिक्षक ने, जो एक उच्च अनुभवी व्यवसायिक कलाकार थे, मेरे प्रथम नियत कार्य की जांच की l वे अपनी ठुड्डी के नीचे हाथ रखकर, चित्रकारी के सामने खड़े हो गए l ये रहा, मैंने सोचा l वे शायद कहनेवाले हैं यह बेकार है l

किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा l

उन्होंने कहा उनको रंगों की पद्धति और स्पष्टता की भावना अच्छी लगी l तब उन्होंने उल्लिखित किया कि दूर के वृक्षों में अधिक हल्के रंग भरे जा सकते थे l घासपात के गुच्छों को सोम्य किनारा चाहिए थी l उनके पास परिदृश्य और रंग के नियमों पर आधारित मेरे काम की आलोचना करने का अधिकार था, फिर भी उनकी आलोचना ईमानदार ओर हितकर थी l

यीशु, जो लोगों को उनके पाप के कारण दोषी ठहराने में पूर्णरूपेण योग्य था, एक सामरी स्त्री को जिससे उसने प्राचीन कुँए पर मुलाकात की, दोषी ठहराने के लिए दस आज्ञा का उपयोग नहीं किया l उसने केवल थोड़े से शब्दों का उपयोग करके कोमलता से उसके जीवन की समीक्षा की l परिणाम यह निकला कि उसने महसूस किया कैसे संतुष्टता के लिए उसकी खोज उसे पाप में ले गयी थी l इस अभिज्ञता पर बल देते हुए, यीशु ने खुद को अनंत संतुष्टता का एकमात्र श्रोत बताते हुए प्रगट किया (युहाना 4:10-13) l

इस परिस्थिति में यीशु द्वारा उपयोग किया गया अनुग्रह और सच्चाई का मेल ही है जिसका अनुभव हम उसके साथ हमारे सम्बन्ध में करते हैं (1:17) l उसका अनुग्रह हमें हमारे पाप के द्वारा अभिभूत होने से रोकता है, और उसकी सच्चाई हमें यह सोचने से रोकती है कि यह एक गंभीर विषय नहीं है l

क्या हम यीशु को हमारे जीवनों में उन क्षेत्रों को दर्शाने के लिए आमंत्रित करेंगे जहाँ हमें उन्नति की ज़रूरत है ताकि हम उसके समान और अधिक बन सकें l