मेरी परवरिश परम्पराओं से पूर्ण कलीसिया में हुयी l किसी प्रिय परिवार के सदस्य या मित्र की मृत्यु हो जाने की स्थिति में ही कोई भूमिका निभाता हुआ दिखाई देता था l अक्सर चर्च के एक बेंच पर या संभवतः हॉल में जल्द ही एक ताम्र प्लेट पर एक तस्वीर इन शब्दों के साथ लगी हुयी दिखाई देती थी : “ . . . के स्मरण में l” मृतक का नाम उसपर उकेरा हुआ होता था, जो एक गुज़री हुयी ज़िन्दगी का चमकदार स्मरण पत्र था l मैं हमेशा उन स्मारकों की प्रशंसा करता था l और अभी भी करता हूँ l फिर भी इसके साथ यह स्मारक मुझे थोड़ा रोकता रहा है क्योंकि वे स्थैतिक/गतिहीन, बेजान वस्तुएं हैं, शब्दशः कुछ “जो जीवित नहीं हैं l” क्या इन स्मारकों में “जीवन” का अंश डालने का कोई तरीका है?

अपने प्रिय मित्र योनातान की मृत्यु हो जाने के बाद, दाऊद उसे स्मरण कराना चाहता था और उसके प्रति एक प्रतिज्ञा पूरी करना चाहता था (1 शमूएल 20:12-17) l परन्तु केवल कुछ स्थैतिक/गतिहीन की तलाश करने के बजाए, दाऊद ने खोज की और कुछ बहुत ही जीवित ढूँढ लिया – योनातान का एक पुत्र (2 शमूएल 9:3) l यहाँ पर दाऊद का निर्णय बहुत ही नाटकीय है l उसने बहाल सम्पति के ख़ास रूपों में (“तेरे दादा शाऊल की सारी भूमि”) और भोजन और पेय (तू मेरी मेज पर नित्य भोजन किया कर) का निरंतर प्रबंध करके मपिबोशेत पर (पद.6-7) दया दिखाने का चुनाव किया (पद.1) l

जब हम फलक और तस्वीरों के द्वारा मृतकों को याद करते हैं, हम दाऊद के उदाहरण को याद करके जीवितों के प्रति दया दिखाएँ l