हाल ही में मेरे ससुर अठत्तर वर्ष के हो गए, और उनको सम्मानित करने के लिए हमारे पारिवारिक सहभागिता में, किसी ने उनसे पुछा, “आपने अपने अब तक जीवन में कौन सी सबसे महत्वपूर्ण बात सीखी है?” उन्होंने उत्तर दिया, “निश्चिन्त रहें l”

निश्चिन्त रहें l उन शब्दों को एकपक्षीय कहकर अस्वीकार करना प्रलोभक हो सकता है l परन्तु मेरे ससुर अँधा आशावाद या सकरात्मक सोच को बढ़ावा नहीं दे रहे थे l वह अपने लगभग आठ दशकों में कठिन समयों को सहन किये थे l आगे बढ़ने का उनका दृढ़ निश्चय किसी धुंधली आशा में जड़वत नहीं था कि बातें बेहतर अच्छी हो सकती हैं, परन्तु उनके जीवन में मसीह के कार्य पर आधारित था l

“निश्चिन्त रहें” – बाइबल जिसे अटलता/दृढ़ता कहती है – केवल इच्छाशक्ति से संभव नहीं है l हम दृढ़ रहते हैं क्योंकि परमेश्वर ने बार-बार इसकी प्रतिज्ञा दी है, कि वह हमारे साथ है, कि वह हमें सामर्थ्य देगा, और कि वह हमारे जीवनों में अपने उद्देश्यों को पूरा करेगा l यही वह सन्देश था जो उसने यशायाह के द्वारा इस्राएलियों से दिया था : “मत डर, क्योंकि मैं तेरे संग हूँ, इधर उधर मत ताक, क्योंकि मैं तेरा परमेश्वर हूँ; मैं तुझे दृढ़ करूँगा और तेरी सहायता करूंगा, अपने धर्ममय दाहिने हाथ से मैं तुझे संभाले रहूँगा” (यशायाह 41:10) l

कैसे “निश्चिन्त रहें”? यशायाह के अनुसार, परमेश्वर का चरित्र आशा के लिए बुनियाद है l यह जानना कि परमेश्वर की भलाई भय पर हमारी पकड़ को हमें ढीला करने की अनुमति देता है, हम पिता और उसकी प्रतिज्ञा से लिपटे रह सकते हैं कि वह हमारे लिए दैनिक प्रबंध करेगा : सामर्थ्य, सहायता, और परमेश्वर की आराम देनेवाली, समर्थ करनेवाला, और थामनेवाली उपस्थिति l