सही जगह में फलना
"एक जंगली पौधा वहां बढ़ता है जहां आप नहीं चाहते," । लोग पौधे तो नहीं है-हमारे अपने मनोभाव और प्रभु से मिली स्वेच्छा होती है। कभी-कभी हम वहां फलवंत होना चाहते हैं जहां परमेश्वर की इच्छा नहीं होती है।
राजा शाऊल का पुत्र, योद्धा राजकुमार योनातन, राजा बनने की आशा कर सकता था। परंतु उसने परमेश्वर की आशीषों को दाऊद पर देखा और शाऊल की ईर्ष्या और अभिमान को समझ लिया (1 शमूएल 18:12–15)। सिंहासन का लोभ करने की बजाए वह दाऊद का मित्र बना और उनके जीवन को भी बचाया। (19:1–6; 20:1–4)
कुछ लोग कहेंगे कि योनातन ने बहुत कुछ खोया। परंतु हम कैसे याद किए जाना चाहेंगे? शाउल के समान जो अपने राज्य से चिपका रहा और अंत में उसे गवा बैठा? या योनातन के समान जिन्होंने ऐसे व्यक्ति के जीवन को बचाया जो यीशु के सम्मानित पूर्वज बनेंगे?
हमारी अपनी योजना से परमेश्वर की योजना उत्तम होती है। हम उसके विरुद्ध लड़ सकते हैं और ऐसे पौधे के समान बन सकते हैं जो एक गलत जगह पर फल और फूल रहा है, या हम उनके निर्देशों का पालन करके उनके बगीचे में बलवंत और उपयोगी और फल लाने वाले पौधे बन सकते हैं। ऐसा करने का विकल्प वह हमारे हाथ में छोड़ देते हैं।
कच्ची दरारें
हमारे समुदाय में शरणार्थियों की संख्या बढ़ने के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय कलीसियाओं में वृद्धि हुई है। ऐसी वृद्धि चुनौतियां लेकर आती हैं। कलीसिया के सदस्यों को सीखना चाहिए कि नए लोगों का कैसे स्वागत करें, जिससे वे अलग संस्कृति, भाषा और आराधना की भिन्न शैली से समायोजित हो सकें। यदि हम अपने बीच के अंतर को एक स्वस्थ तरीके से नहीं संभालते तो यह गंभीर और कठोर हो कर मनमुटावों में बदल जाते हैं।
यरूशलेम में प्रारंभिक कलीसिया में एक टकराव उठ कर खड़ा हुआ जिसकी जड़ सांस्कृतिक मतभेद पर थी। खिलाने पिलाने की सेवा में यूनानी विज्ञान शास्त्रियों की विधवाओं की सुधि नहीं ली जा रही थी (प्रेरितों के काम 6:1)। प्रेरितों ने कहा, “अपने में से सात सुनाम पुरूषों को जो पवित्र आत्मा और बुद्धि से परिपूर्ण हों, चुन लो” (पद 3)। चुने गए सदस्य यूनानी थे (पद 5), उस समूह के सदस्य जिनकी सुधि नहीं ली जा रही थी। समस्या की समझ उन्हें बेहतर थी। प्रेरितों ने प्रार्थना करके उन पर हाथ रखे और कलीसिया फैलता गया (पद 6–7)।
विकास में चुनौतियों आती हैं, क्योंकि इससे परस्पर संपर्क बढ़ता है। परंतु जब हम पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर निर्भर करेंगे तो उनके रचनात्मक समाधान से ऐसी समस्याएं विकास के अवसरों में बदली जाएंगी।
विशेषज्ञों का कहना क्या है?
बोस्टन ग्लोब पत्रिका में जैफ जैकोबी “विशेषज्ञों द्वारा बातों का निराशाजनक, रूप से गलत अनुमान लगाने की विलक्षण क्षमता” के उपर व्यंग लिखते हैं। हाल के इतिहास से स्पष्ट है कि वे सही कहते हैं। विशेषज्ञों की अनगिनत भविष्यवाणियाँ बुरी तरह चूक गईं हैं। स्पष्ट है प्रतिभाशाली व्यक्ति की भी सीमा होती है।
केवल एक ही हैं जो पूरी तरह से विश्वास योग्य है, और कुछ तथाकथित विशेषज्ञों के लिए उनके पास कठोर शब्द थे, उस समय के धार्मिक अगुवे जो दावा करते थे कि उन्हें सत्य की पहचान थी। इन विद्वानों और धर्मशास्त्रियों की धारणा थी कि वे जानते हैं कि जब उद्धारकर्ता मसीहा आएगा तो वो कैसा होगा।
यीशु ने उन्हें चेताया कि किस तरह वे लोग विषय की तह तक नहीं पहुँच पा रहे थे, “तुम पवित्र शास्त्र में ढूंढ़ते हो...यह पवित्र शास्त्र वही है, जो मेरी गवाही देता है”। (यूहन्ना 5:39-40)
नए वर्ष से पहले, हमें भयभीत से लेकर बेहद आशावादी बनाने वाली सभी प्रकार की भविष्यवाणियां सुनने को मिल जाएंगीं। उनमें से बहुत सी बड़े विश्वास और अधिकार से कही जाएंगी। चिंतित मत होना। हमारा विश्वास एक में ही रहता है जो बाइबिल का मुख्य आधार है। हम सभी पर और हमारे भविष्य पर उसकी एक मज़बूत पकड़ है।
कौन सा काम?
अपना मोबाइल फोन समुद्र तट पर खोने के बाद एंड्रू शिएटेल को लगा जैसे उसने हमेशा के लिए उसे खो दिया l हालाँकि, लगभग एक सप्ताह के बाद, मछुआरा, ग्लेन करले उसे पुकारकर उसका फ़ोन वापस कर दिया, जो सूखने के बाद ठीक काम कर रहा था l यह मोबाइल फोन एक 25 पौंड रेहू मछली के पेट से निकला था l
जीवन अनेक अजीब कहानियों से भरा पड़ा है, और हमें बाइबिल में अनेक कहानियाँ मिलती हैं l एक बार कर अधिकारी पतरस से मांग करने लगे, “क्या तुम्हारा गुरु मंदिर का कर नहीं देता?”(मत्ती 17:24) l यीशु ने सिखाने के लिए उस पल का उपयोग किया l वह चाहता था कि पतरस राजा के रूप में उसकी भूमिका को समझ ले l कर राजा के पुत्रों से नहीं वसूले जाते थे, और प्रभु ने स्पष्ट कर दिया कि न वह और न ही उसकी संतान कर देने के लिए बाध्य थे (पद.25-26) l
फिर भी यीशु किसी को “ठोकर (नहीं)” देना चाहता था(पद.27), इसलिए उसने पतरस को मछली पकड़ने भेजा l (यह कहानी का विचित्र हिस्सा है l) पकड़ी गयी पहली मछली के पेट में पतरस को एक सिक्का मिला l
यीशु यहाँ पर क्या करना चाहता है? एक बेहतर प्रश्न होगा, “यीशु परमेश्वर के राज्य में क्या करना चाहता है?” वह अधिकृत राजा है-उस समय भी जब अनेक उसे राजा के रूप में नहीं पहचान रहे हैं l जब हम अपने जीवन में उसे प्रभु स्वीकारते हैं, हम उसकी संतान बन जाते हैं l
जीवन हमसे बहुत कुछ मांगेगा, किन्तु यीशु हमारी ज़रूरतों को पूरा करेगा l जैसे कि भूतपूर्व पास्टर डेविड पोम्पो कहते हैं, “जब हम अपने पिता के लिए मछली पकड़ते हैं, हम अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए उस पर भरोसा कर सकते हैं l”
क्रिसमस
एक साल क्रिसमस के दिनों में मुझे एक ऐसे जगह पर काम करने जाना पड़ा जहां मेरे मित्र मुझे ढूंढ न सके l कार्य-स्थल से अपने कमरे पर लौटते समय, मैंने काला सागर की सर्द हवा का सामना किया l
अपने कमरे में पहुँचकर, मैं बहुत चकित हुआ l मेरे कला प्रेमी मित्र ने अपने नए प्रोजेक्ट, उन्नीस इंच लम्बी मिट्टी की क्रिसमस ट्री को बना लिया था l उसमें लगी रंगीन बत्तियों से हमारा अँधेरा कमरा जगमगा रहा था l उसे देखकर मैंने महसूस किया, काश आज मैं घर में होता!
अपने भाई एसाव से भागकर याकूब भी अपने को एक अपरिचित और अकेला स्थान में पाया l कठोर भूमि पर सोते हुए, सपने में उसकी मुलाकात परमेश्वर से हुई l और परमेश्वर ने उसे एक घर देने की प्रतिज्ञा देते हुए कहा, “जिस भूमि पर तू लेटा है, उसे मैं तुझ को और तेरे वंश को दूँगा . . . तेरे और तेरे वंश के द्वारा पृथ्वी के सारे कुल आशीष पाएँगे”(उत्प.28:13-14)l
निःसंदेह, याकूब से ही प्रतिज्ञात मुक्तिदाता आने वाला था, जो हमें अपने निकट लाने के लिए अपने घर को छोड़ा l यीशु ने अपने चेलों से कहा, ”मैं . . . फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहां मैं रहूँ वहां तुम भी रहो” (यूहन्ना 14:3) l
मैं दिसम्बर की उस रात के अँधेरे में अपने कमरे में बैठकर उस क्रिसमस ट्री को देख रहा था l शायद निःसंदेह ही मैंने उस ज्योति के विषय सोचा जो हमें घर का मार्ग दिखाने के लिए पृथ्वी पर आयी थी l
सामर्थी शिशु
मैंने पहली बार उसे देखा, और रो दिया l वह पालने में सो रहा एक नवजात शिशु ही दिखाई दे रहा था l किन्तु हम जानते थे कि वह कभी नहीं जागेगा l जब तक कि वह यीशु की बाहों में न हो l
वह बहुत महीनों तक जीवित रहा l तब उसकी माँ ने हृदय को अत्यंत कष्ट पहूंचानेवाली ई-मेल भेजी l उसने “उस अत्यंत दुःख के विषय लिखा जो किसी के अन्दर शोक उत्पन्न करता है l” तब वह बोली, “परमेश्वर ने उस छोटे जीवन द्वारा अपने प्रेम के कार्य को कितनी गहराई से हमारे हृदयों में डाला था!” वह कितना सामर्थी जीवन था l”
सामर्थी? वह ऐसा कैसे कह सकती थी?
उस परिवार के इस छोटे प्रिय बच्चे ने उनको और हमको दर्शा दिया था कि हमें सब कुछ के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहना है l विशेषकर जब स्थिति अत्यंत ही ख़राब हो! कठिन किन्तु तसल्ली देनेवाला सच यह है कि परमेश्वर हमारे दुःख में हमसे मुलाकात करता है l एक बेटे के खोने का दर्द उसे मालूम है l
हमारे गहरे दुःख में, हम दाऊद के गीतों की ओर ध्यान देते हैं क्योंकि वह अपने दुःख में लिखता है l “मैं कब तक अपने मन ही मन में युक्तियाँ करता रहूँ, और दिन भर अपने हृदय में दुखित रहा करूँ?” उसने पूछा (भजन 13:2) l “मेरी आँखों में ज्योति आने दे, नहीं तो मुझे मृत्यु की नींद आ जाएगी” (पद.3) l फिर भी दाऊद अपने बड़े प्रश्नों को परमेश्वर को सौंप सकता था l “परन्तु मैंने तो तेरी करुणा पर भरोसा रखा है; मेरा हृदय तेरे उद्धार से मगन होगा” (पद.5) l
केवल परमेश्वर ही हमारे सबसे दुखद समयों को सर्वश्रेष्ठ महत्त्व दे सकता है l
भाई- भाई में
मेरा भाई और मैं जिनमें एक वर्ष से भी कम अंतर है, उम्र में बढ़ते हुए बहुत “प्रतियोगी” रहे (अनुवाद : हम लड़ते थे! ) l पिता समझ गए l उनके पास भाई थे l माँ? थोड़ा समझ पायी l
हमारी कहानी उत्पत्ति की पुस्तक में ठीक बैठ सकती थी, जिसे एक अच्छा नाम दिया जा सकता था भाईयों के आपसी झगड़े का संक्षिप्त इतिहास l कैन और हाबिल (उत्प.4); इसहाक और इश्माएल (21:8-10); बिन्यामिन को छोड़कर, यूसुफ और बाकी सब (अध्याय 37) l किन्तु भाईयों की दुश्मनी में याकूब और एसाव अव्वल हैं l
एसाव अपने जुड़वाँ भाई याकूब से दो बार धोखा खाने पर उसकी हत्या करना चाहा (27:41) l दशकों बाद याकूब और एसाव मेल करनेवाले थे (अध्याय 33) l किन्तु उनके वंशज एदोम और इस्राएल राष्ट्र में शत्रुता चलती रही l इस्राएलियों के प्रतिज्ञात देश में प्रवेश करते समय, एदोम धमकी और सेना के साथ उनसे मिला (गिनती 20:14-21) l बहुत बाद में, जब आक्रमणकारियों से यरूशलेम वासी भागने लगे, एदोम ने शरणार्थियों को मारा (ओबद्याह 1: 10-14) l
हमारे लिए सुखकर है कि बाइबिल केवल हमारे टूटेपन की नहीं किन्तु परमेश्वर के छुटकारे की कहानी भी बताती है l यीशु ने सब कुछ बदल दिया और अपने शिष्यों से कहा, “मैं तुम्हें एक नयी आज्ञा देता हूँ कि एक दूसरे से प्रेम रखो” (यूहन्ना 13:34) l तब वह हमारे लिए मर कर उसका अर्थ बता दिया l
बड़े होकर हम दोनों भाई निकट आ गए l परमेश्वर के साथ भी ऐसा है l जब हम उसके द्वारा प्रदत्त क्षमा का उत्तर देते हैं, वह भाई-बहनों के बीच विरोध को भाईचारे के प्रेम में बदल देता है l
संकट में कल्पना की गई
मार्क को वह क्षण याद है जब उसके पिता ने परिवार को बुलाया l कार ख़राब थी, महीने के अंत तक परिवार के पास पैसे नहीं होते l पिता ने प्रार्थना करके परिवार को परमेश्वर पर आशा रखने को कहा l
आज मार्क को परमेश्वर की अद्भुत सहायता याद है l एक मित्र ने कार मरम्मत करवा दी; अनपेक्षित चेक आ गए; घर में भोजन पहुँच गया l परमेश्वर की स्तुति सरल थी l किन्तु परिवार की कृतज्ञता संकट की भट्टी में विकसित हुई थी l
आराधना गीतों को भजन 57 से अत्यधिक प्रेरणा मिली है l जब दाऊद ने कहा, “तू स्वर्ग के ऊपर महान है” (पद.11), हम उसे मध्य पूर्व के अद्भुत रात में आसमान की ओर टकटकी लगाए, अथवा मंदिर की आराधना में गाते हुए कल्पना कर सकते हैं l किन्तु वास्तव में भयभीत दाऊद एक गुफा में छिपा था l
“मेरा प्राण सिंहों के बीच में है,” दाऊद कहता है l ये “मनुष्य” हैं जिनके “दांत बर्छी और तीर” हैं (पद.4) l दाऊद की प्रशंसा संकट से निकली l यद्यपि वह उसकी मृत्यु चाहनेवाले शत्रुओं से घिरा था, दाऊद ने ये अद्भुत शब्द लिखे : “हे परमेश्वर, मेरा मन स्थिर है ... मैं गाऊंगा वरन् भजन कीर्तन करूँगा” (पद.7) l
आज हम हर संकट में, परमेश्वर से मदद प्राप्त कर सकते हैं l तब हम आशा से, उसकी अनंत देखभाल में उसकी बाट जोह सकते हैं l
साँप और तिपहिया साइकिल
वर्षों से मैंने घाना देश की एक कहानी बार-बार बताई है जब मेरा भाई और मैं छोटे थे l मैं याद करता हूँ कि उसने अपनी लोहे की पुरानी तिपहिया साइकिल एक छोटे नाग सांप के ऊपर खड़ी कर दी थी l तिपहिया साइकिल उस सांप के लिए बहुत भारी थी, जो अगले पहिये के नीचे दबा रहा l
किन्तु मेरी मौसी और मेरी माँ की मृत्यु के बाद, हमें माँ का लिखा हुआ एक पुराना पत्र मिला जिसमें इस घटना का वर्णन था l वास्तव में, मैंने सांप के ऊपर साइकिल खड़ी कर दी थी, और मेरा छोटा भाई इसके विषय मेरी माँ से कहने गया था l उन्होंने सचमुच में इस घटना को देखा था और वास्तविक घटना के विषय उनके लिखने से सच्चाई प्रगट हुआ l
इतिहासकार लूका सही शब्दों के महत्त्व को जानता था l उसने समझाया कि “जो पहले ही से इन बातों के देखनेवाले . . . थे” यीशु की कहानी को हम तक पहुँचाया (लूका 1:2) l उसने थियुफिलुस को लिखा, “उन सब बातों का सम्पूर्ण हाल और आरम्भ से ठीक-ठीक जांच करके, उन्हें तेरे लिए क्रमानुसार लिखूं ताकि तू यह जान ले कि वे बातें जिनकी तू ने शिक्षा पायी है, कैसी अटल हैं” (पद.3-4) l लूका का सुसमाचार परिणाम है l उसके बाद, प्रेरितों के काम की पुस्तक के आरंभ में, लूका यीशु के विषय कहता है, “उसने दुःख उठाने के बाद बहुत से पक्के प्रमाणों से अपने आप को उन्हें जीवित दिखाया” (प्रेरितों 1:3) l
हमारा विश्वास अफ़वाह और अभिलाषी सोच पर आधारित नहीं है l वह यीशु के जीवन के लिखित प्रमाणों पर आधारित है, जो परमेश्वर के साथ हमारा मेल कराने आया l उसकी कहानी अटल है l