मोड़
एक सेवानिवृत सैनिक के अंतिम संस्कार के समय एक पासवान के मन में ख्याल आया कि वह सैनिक कहाँ होगा l किन्तु तब ही, लोगों को यह न बताकर कि वे परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं, उसने काल्पनिक बातें करनी शुरू कर दी जो बाइबिल में नहीं हैं l ऐसी बातें सुनकर मैं सोचने लगा l आशा कहाँ है?
आखिर में उसने अंतिम गीत गाने को कहा l और जब हम खड़े होकर “प्रभु महान” गाने लगे, लोग अपने हृदय की गहराई से परमेश्वर की प्रशंसा करने लगे l कुछ ही क्षणों में, पूरे कमरे का वातावरण ही बदल गया था l अचानक, आश्चर्यजनक रूप से, तीसरे पद के मध्य मेरी भावनाएं मेरी आवाज़ से तीव्र थी l
जब सोचता हूँ कि पिता अपना पुत्र, मरने भेजा है वर्णन से अपार,
कि क्रूस पर उसने मेरे पाप सब लेकर, रक्त बहाया कि मेरा हो उद्धार l
उस गीत के गाने तक, मैं सोच रहा था कि परमेश्वर उस अंतिम संस्कार में उपस्थित होगा या नहीं l सच्चाई यह है कि वह तो कभी छोड़ता ही नहीं है l एस्तेर की पुस्तक से यह सच्चाई प्रगट होती है l यहूदी बन्धुआई में थे, और शक्तिशाली लोग उनको मारना चाहते थे l फिर भी सबसे कठिन समय में, अधर्मी राजा ने दास बनाए गए इस्राएलियों को उनके विरुद्ध खुद का बचाव करने की अनुमति दी जो उनको मार डालना चाहते थे (एस्तेर 8:11-13) l परिणामस्वरूप एक सफल बचाव दिखा और उत्सव मनाया गया (9:17-19) l
यदि किसी अंतिम संस्कार में परमेश्वर एक गीत के शब्दों द्वारा खुद को प्रगट करता है तो इसमें चकित होने की ज़रूरत नहीं l आखिरकार, उसने एक प्रयासित जातिसंहार को उत्सव में और एक क्रूसीकरण को जी उठने और उद्धार में बदल दिया!
एक साल में बाइबिल
अपने विद्यार्थियों की खराब लेखन आदतों से परेशान, प्रसिद्ध लेखक और कॉलेज प्रोफेसर डेविड फ़ॉस्टर वालस ने उनके कौशल को सुधारने का विचार किया l उसी क्षण एक चौंकाने वाले प्रश्न से उसका सामना हुआ l प्रोफेसर ने खुद से पूछा कि क्यों एक विद्यार्थी उसके जैसा “आत्म संतुष्ट, संकुचित, पाखंडी, [और] दूसरों को नीचा दिखाने वाले” की सुने l वह जानता था कि वह अहंकारी था l
वह प्रोफेसर बदल सकता था और बदल भी गया किन्तु अपने किसी विद्यार्थी के समान नहीं बन सका l तथापि जब यीशु इस धरती पर आया, वह हममें से एक के समान बनकर हमें नम्रता दिखा दिया l सभी सीमाओं को लांघकर, यीशु सेवा, शिक्षा, और अपने पिता की इच्छा पूरा करते हुए हर स्थान को अपने घर जैसा बना दिया l
उसी प्रकार क्रूसित होते समय भी, यीशु ने अपने हत्यारों के लिए क्षमा मांगी (लूका 23:34) l हर एक तकलीफदेह श्वास लेने का प्रयास करते समय भी उसने अपने साथ मरते हुए एक अपराधी को अनंत जीवन प्रदान किया(पद. 42-43) l
यीशु ने ऐसा क्यों करना चाहा? क्यों उसने अपने जीवन के अंत में भी हमारे समान लोगों की सेवा की? प्रेरित यूहन्ना बताता है l प्रेम के कारण! वह लिखता है, “हम ने प्रेम इसी से जाना कि उसने हमारे लिए अपने प्राण दे दिए l” तब वह हमें इसे स्वीकार करने हेतु बाध्य करता है l “और हमें भी भाइयों के लिए प्राण देना चाहिए” (1 यूहन्ना 3:16) l
यीशु ने हमें दिखाया कि उसका प्रेम हमारे अहंकार को, हमारी आत्म-संतुष्टि को, दूसरों को नीचा दिखाने वाला हमारे स्वभाव को समाप्त कर देता है l
बच निकलना
शरद ओलंपिक्स 2004 में यूटाह में हुआ था l कनाडा के क्षेत्र-पार स्की करनेवाली बेकी स्कॉट उस समय काँस्य पदक जीती थी l दो अयोग्य खिलाड़ियों को महीनों बाद वर्जित पदार्थ सेवन के कारण अयोग्य होने पर, जून 2004 में, वैंक्यूवर आर्ट गैलरी में, स्कॉट को ओलिंपिक स्वर्ण पदक मिला l
आख़िरकार स्कॉट को अपना स्वर्ण मिल गया, किन्तु वह मंच पर खड़ी होकर राष्ट्रगान बजते हुए सुनने से रह गई l अन्याय का हल नहीं निकला l
अन्याय तकलीफ़देह होते हैं, और मेहनत से जीते गए पदक से वंचित होने से भी बड़े अन्याय हैं l कैन और हाबिल की कथा अन्याय की चरम क्रिया है (उत्प. 4:8) l और प्रथम झलक में ऐसा लग सकता है कि वह भाई की हत्या करके बच गया l आख़िरकार, वह लम्बी आयु और पूरा जीवन जीकर, एक नगर भी बसाया (पद.17) l
किन्तु स्वयं परमेश्वर ने कैन का सामना किया l उसने कहा, “तेरे भाई का लहू ... चिल्लाकर मेरी दोहाई दे रहा है” (पद.10) l नया नियम कैन के उदाहरण से बचने को कहता है (1 यूहन्ना 3:12; यहूदा 1:11) l किन्तु हाबिल के विषय, “विश्वास ही से हाबिल ... मरने पर भी अब तक बातें करता है” (इब्रा. 11:4) l
परमेश्वर न्याय, निर्बलों का बचाव, और अन्याय को दण्डित करता है l अंत में, अन्याय करके कोई बच नहीं सकता l और विश्वास द्वारा किया गया कार्य परमेश्वर द्वारा पुरस्कृत होता है l
छोटा मार्ग अपनाना
नैंसी अपनी सहेली की खिड़की की ओर देखकर आहें भरी l बसंती वर्षा और धूप से सुरुचिपूर्ण ढंग से तैयार अनेक फूल खिले हुए थे l
“बिना मेहनत मुझे वही आभा चाहिए,” वह उत्साहपूर्वक बोली l
कुछ छोटे मार्ग ठीक और व्यावहारिक भी हैं l दूसरे हमारी आत्मा की उपेक्षा कर हमें मृत समान बनाते हैं l हम अपने से बिल्कुल भिन्न व्यक्तित्व के समक्ष स्वयं को समर्पित किये बिना किसी कठिनाई और मालिन्य के रोमांच चाहते हैं l हम वास्तविक जीवन के रोमांच में खतरा और पराजय बिना “महानता” चाहते हैं l हम असुविधा बगैर परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं l
यीशु ने शिष्यों से कहा कि हम कठिन चुनाव से बचकर छोटे मार्ग द्वारा उसको अपना जीवन समर्पित नहीं कर सकते हैं l यीशु ने एक प्रत्याशित शिष्य को चिताया, “जो कोई अपना हाथ हल पर रखकर पीछे देखता है, वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं” (लूका 9:62) l मसीह का अनुसरण हमारी वफादारी का पूरा परिवर्तन मांगता है l
यीशु की ओर मुड़ने पर यह कार्य आरंभ होता है l किन्तु यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसने यह भी कहा कि जो “मेरे और सुसमाचार के लिए [त्याग करता है] ... इस समय सौ गुना न पाए, ... और परलोक में अनंत जीवन” (मरकुस 10:29-30) l मसीह का अनुसरण कठिन है, किन्तु उसने पवित्र आत्मा दिया है और पुरस्कार अभी और हमेशा का पूर्ण आनंदित जीवन है l
ख़ामोशी
सहायता ट्रकों के गाँव की टूटी झोपड़ियां हटाते समय चूज़े भागने लगे l नंगे पाँव बच्चे घूरते रहे l बारिश से उजड़ी “सड़क” पर यातायात कम थी l
अचानक, काफिले ने दीवारों से घिरी मेयर का बड़ा मकान देखा जो खाली था l लोगों के पास बुनियादी ज़रूरतें नहीं थीं जबकि वह दूर शहर में आलिशान मकान में रहता था l
ऐसा अन्याय हमें क्रोधित करता है, जिससे परमेश्वर का नबी भी क्रोधित हुआ l व्यापक शोषण देखकर हबक्कूक ने कहा, “हे यहोवा, मैं कब तक तेरी दोहाई देता रहूँगा, और तू न सुनेगा?” (हबक्कूक 1:2) l किन्तु परमेश्वर ने ध्यान देकर कहा, “हाय उस पर जो पराया धन छीन छीनकर धनवान हो जाता है? ... जो अपने घर के लिए अन्याय के लाभ का लोभी है” (2:6, 9) l न्याय निकट है!
हम दूसरों पर परमेश्वर का न्याय चाहते हैं, किन्तु हबक्कूक की एक मुख्य बात हमें रोकती है : “यहोवा अपने पवित्र मंदिर में है; समस्त पृथ्वी उसके सामने शांत रहे” (2:20) l समस्त पृथ्वी l शोषित और उत्पीड़क l कभी-कभी परमेश्वर की प्रत्यक्ष खामोशी का उचित प्रतिउत्तर ... ख़ामोशी है!
ख़ामोशी क्यों? क्योंकि हम अपनी आत्मिक दरिद्रता नहीं देखते l हम ख़ामोशी में पवित्र परमेश्वर के सामने अपने पाप देख सकेंगे l
हबक्कूक की तरह हम भी परमेश्वर पर भरोसा सीखें l हम उसके सब मार्ग नहीं जानते, किन्तु जानते हैं कि वह भला है l सब कुछ उसके नियंत्रण और समय में है l
हमें क्या चाहिए?
एक वृद्ध ने बताया कि उसने अपनी नतिनी से घोड़ा और बग्गी से लेकर चाँद पर चलते हुए मानव की बात की l किन्तु फिर सोचकर बोला, “मैंने कभी नहीं सोचा यह इतनी छोटी होगी l”
जीवन छोटा है, और अनेक अनंतकालिक जीवन हेतु यीशु का अनुसरण करते हैं l यह बुरा नहीं है, किन्तु समझना होगा कि अनंत जीवन है क्या l हमारी इच्छा गलत हैं l हमें कुछ बेहतर चाहिए, और हमारी सोच है कि वह अति निकट है l काश मुझे स्कूल के शीघ्र बाद नौकरी मिल जाती, मेरी शादी हो जाती l मैं सेवा-निवृत हो जाता l काश मैं ... l और तब एक दिन दादा की आवाज़ प्रतिध्वनित हुई, समय बीत गया l
सच्चाई यह है, अभी हमारे पास अनंत जीवन है l प्रेरित पौलुस ने लिखा, “जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया (रोमियों 8:2) l शारीरिक व्यक्ति शरीर की बातों पर मन लगाते हैं; परन्तु आध्यात्मिक आत्मा की बातों पर मन लगते हैं (पद.5) l अर्थात्, हमारी इच्छाएँ मसीह के निकट आने से बदल जाती हैं l यह स्वाभाविकता से हमारी सर्वोत्तम इच्छा पूरी करता है l “आत्मा पर मन लगाना जीवन और शांति है” (पद.6) l
यह जीवन का एक सबसे बड़ा झूठ है कि वास्तविक जीवन जीने से पूर्व हमें कहीं और रहना है, कुछ और करना है, किसी और के साथ l यीशु में जीवन पाने के बाद, हम जीवन की संक्षिप्तता के अफ़सोस को उसके संग जीवन के सम्पूर्ण आनंद से अभी और हमेशा के लिए बदल लेते हैं l
एक भी गौरैया नहीं
अपने सम्पूर्ण जीवन में ओजस्वी और अनुशासित, मेरी माँ, अपनी उम्र के कारण इस समय एक मरणासन्न रोगियों के अस्पताल में है l श्वास के लिए तड़पती हुई, उनकी गिरती स्थिति उनकी खिड़की के बाहर लुभावना सुन्दर वसंत के दिन के विपरीत थी l
संसार में समस्त भावनात्मक तैयारियाँ अलविदा के अटल सत्य के लिए हमें समुचित तौर से तैयार नहीं कर सकती l मृत्यु कितना बड़ा अनादर है! मुझे ख्याल आया l
मैंने खिड़की के बाहर पक्षियों के दाने के बर्तन को देखा l एक छोटी चिड़िया दाना खाने आई l शीघ्र ही एक परिचित वाक्यांश मैंने याद किया : “तुम्हारे पिता की इच्छा के बिना उनमें से एक भी भूमि पर नहीं गिर सकती” (मत्ती 10:29) l यीशु ने यह आज्ञा यहूदिया के एक मिशन पर अपने चेलों को दी, किन्तु यह सिद्धांत आज हम पर भी लागू है l “तुम गौरैयों से बढ़कर हो” (पद.31) l
मेरी माँ द्रवित होकर ऑंखें खोली l अपने बचपन को याद करके अपनी माँ के लिए हॉलैंड में प्रयुक्त प्रेम शब्द द्वारा बताया, “मुती मर गयी!”
“हाँ,” मेरी पत्नी सहमत थी l “वह यीशु के साथ है l” अनिश्चित, माँ ने आगे कहा l “और जोइस और जिम?” उसने अपनी बहन और भाई के विषय पूछी l “हाँ, वे भी यीशु के साथ हैं l “किन्तु हम भी शीघ्र उनके साथ होंगे!”
“इंतज़ार करना कठिन है,” माँ ने धीरे से कहा l
परमेश्वर का बचाव
कार पर लगे परमेश्वर विरोधी स्टिकर्स ने विश्विविद्यालय व्याख्याता का ध्यान अपनी ओर खींचा l पूर्व में खुद एक नास्तिक, उसने सोचा कि शायद कार-मालिक विश्वासियों को क्रोध दिला रहा था l “क्रोध नास्तिक को अपनी नास्तिकता प्रमाणित करने में मदद करता है,” उसने समझाया l तब उसने चिताया, “अक्सर, नास्तिक अपनी इच्छा पा लेता है l”
अपनी विश्वास यात्रा में, उसने एक मसीही मित्र की दिलचस्पी याद की जिसने उसे मसीह की सच्चाई बतायी l उसके मित्र के “आग्रह भाव में क्रोध नहीं था l” वह उस दिन प्राप्त वास्तविक आदर और शिष्टता भूल नहीं सकता l
विश्वासी दूसरों द्वारा मसीह के अपमान को अनादर मानते हैं l किन्तु यीशु को वह इन्कार कैसा लगता है? यीशु ने हमेशा धमकियां, और घृणा सही, किन्तु अपने ईश्वरत्व पर शक नहीं किया l एक बार, एक गाँव के इन्कार करने पर, याकूब और यूहन्ना ने तुरंत विरोध किया, “हे प्रभु, क्या ... हम आज्ञा दें, कि आकाश से आग गिरकर उन्हें भस्म कर दे?” (लूका 9:54) l यीशु ने “फिरकर उन्हें डांटा” (पद.5) l आखिरकार, “परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा कि जगत पर दंड की आज्ञा दे, परन्तु ... जगत उसके द्वारा उद्धार पाए” (यूहन्ना 3:17) l
हम चकित होंगे कि परमेश्वर नहीं चाहता हम उसका बचाव करें l उसकी इच्छा है कि हम उसके प्रतीक बनें! इसमें समय, मेहनत, संयम, और प्रेम ज़रूरी है l
स्पर्श मात्र
किली पूर्वी अफ्रीका के एक दुरस्त क्षेत्र में एक मेडिकल मिशन पर जाने का अवसर पाकर प्रसन्न थी, किन्तु असहज l उसके पास मेडिकल अनुभव नहीं था l फिर भी, वह बुनियादी देखभाल कर सकती थी l
वहाँ रहते हुए उसकी मुलाकात एक महिला से हुयी जो भयंकर किन्तु साध्य रोग से ग्रस्त थी l उसका विकृत टांग उसको अकेला रखता था, किन्तु किली को कुछ करना ही था l टांग को साफ़ करके पट्टी करते समय, मरीज़ चिल्लाने लगी l चिंतित किली ने पूछा कि वह उसको तकलीफ तो नहीं पहुँचा रही l “नहीं,” उसने उत्तर दिया l “नौ वर्षों में पहली बार किसी ने मुझे छुआ है l”
कुष्ठ एक और बिमारी है जो अपने शिकार को दूसरों से दूर करता है, और प्राचीन यहूदी संस्कृति में इसके प्रसार को रोकने के लिए कठोर मार्गदर्शिकाएं थीं : “उन्हें अकेला रहना था,” व्यवस्था की घोषणा थी l “उसका निवास स्थान छावनी से बाहर हो” (लैव्य. 13:46) l
इसलिए यह असाधारण है कि एक कुष्ठ रोगी यीशु के निकट आकर बोला, “हे प्रभु, यदि तू चाहे, तो मुझे शुद्ध कर सकता है” (मत्ती 8:2) l “यीशु ने हाथ बढ़ाकर उसे छुआ, और कहा, “मैं चाहता हूँ, तू शुद्ध हो जा” (पद. 3) l
एक अकेली महिला का रोग ग्रस्त टांग छूकर, किली ने मसीह के भयमुक्त, एक करनेवाला प्रेम प्रदर्शित किया l मात्र एक स्पर्श अंतर लाता है l