अपने विद्यार्थियों की खराब लेखन आदतों से परेशान, प्रसिद्ध लेखक और कॉलेज प्रोफेसर डेविड फ़ॉस्टर वालस ने उनके कौशल को सुधारने का विचार किया l उसी क्षण एक चौंकाने वाले प्रश्न से उसका सामना हुआ l प्रोफेसर ने खुद से पूछा कि क्यों एक विद्यार्थी उसके जैसा “आत्म संतुष्ट, संकुचित, पाखंडी, [और] दूसरों को नीचा दिखाने वाले” की सुने l वह जानता था कि वह अहंकारी था l

वह प्रोफेसर बदल सकता था और बदल भी गया किन्तु अपने किसी विद्यार्थी के समान नहीं बन सका l तथापि जब यीशु इस धरती पर आया, वह हममें से एक के समान बनकर  हमें नम्रता दिखा दिया l सभी सीमाओं को लांघकर, यीशु सेवा, शिक्षा, और अपने पिता की इच्छा पूरा करते हुए हर स्थान को अपने घर जैसा बना दिया l

उसी प्रकार क्रूसित होते समय भी, यीशु ने अपने हत्यारों के लिए क्षमा मांगी (लूका 23:34) l हर एक तकलीफदेह श्वास लेने का प्रयास करते समय भी उसने अपने साथ मरते हुए एक अपराधी को अनंत जीवन प्रदान किया(पद. 42-43) l

यीशु ने ऐसा क्यों करना चाहा? क्यों उसने अपने जीवन के अंत में भी हमारे समान लोगों की सेवा की? प्रेरित यूहन्ना बताता है l प्रेम के कारण! वह लिखता है, “हम ने प्रेम इसी से जाना कि उसने हमारे लिए अपने प्राण दे दिए l” तब वह हमें इसे स्वीकार करने हेतु बाध्य करता है l “और हमें भी भाइयों के लिए प्राण देना चाहिए” (1 यूहन्ना 3:16) l

यीशु ने हमें दिखाया कि उसका प्रेम हमारे अहंकार को, हमारी आत्म-संतुष्टि को, दूसरों को नीचा दिखाने वाला हमारे स्वभाव  को समाप्त कर देता है l